अकथ्य, अकल्पनीय, प्रेम के ये दृश्य...
पतझड़ों सा है रंग, पर, बसन्त सा उमंग,
सूखे से बीज में, जागे अंकुरण,
उम्र से परे, नर्म सा ये चुभन,
एहसास, फिर से वही,
लिए ही आते हैं, प्रेम के ये वृक्ष!
अकथ्य, अकल्पनीय, प्रेम के ये दृश्य...
60 से बस चार कम, अब 56 के हैं हम,
प्रेम, इस उम्र में, अब क्या करें!
पर, रुकते हैं कब ये अंकुरण,
इस बीज के प्रस्फुटन,
उग ही आते हैं, प्रेम के ये वृक्ष!
अकथ्य, अकल्पनीय, प्रेम के ये दृश्य...
बह तो जाएंगे हम, उम्र के इस बहाव में,
ओस बन जाएंगे, इस पड़ाव में,
जगा के, सर्द सी इक छुअन,
देकर, दर्द का चलन,
संवर ही जाएंगे, प्रेम के ये वृक्ष!
अकथ्य, अकल्पनीय, प्रेम के ये दृश्य...
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