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Saturday, 21 May 2016

अकथ्य प्रेम तुम

अकथ्य ही रहे तुम इस मूक़ प्रेमी हृदय की जिज्ञासा में!

ओ मेरी हृदय के अकथ्य चिर प्रेम-अभिलाषा,
चिर प्यास तुम मेरे हृदय की,
उन अभिलाषित बुंदों की सदा हो तुम ही,
रहे अकथ्य से तुम मुझ में ही कहीं,
हृदय अभिलाषी किंचित ये मूक सदा ही!

ओ मेरी हृदय के अप्रकट प्रेमी हम-सानिध्या,
चिर प्रेमी तुम मेरे हृदय की,
हम-सानिध्य रहे सदा तुम यादों में मेरी,
अप्रकट सी कहीं तुम मुझ में ही,
हृदय आकुल किचिंत ये मूक़ सदा ही!

ओ मेरी हृदय के अकथ्य चिर-प्यासी उत्कंठा,
चिर उत्कंठा तुम मेरे हृदय की,
प्यासी उत्कंठाओं की सरिता तुम में ही,
अनबुझ प्यास सी तुम मुझ में ही,
हृदय प्यासा किंचित ये मूक सदा ही!

अकथ्य ही रहे सदा तुम इस मूक़ हृदय की जिज्ञासा में!

Monday, 11 April 2016

मूक प्राण

मूक प्राणों के निर्णय क्या ऐसे तय होते हैं जीवन में?

गुमसुम सी सजनी वो हाथों में मेंहदी रचकर,
इक सशंक जिज्ञासा पलती मन के भीतर,
अपरिचित सी आहट हर पल मन के द्वारे पर,
क्या वो हल्दी निखरेगी सजनी के तन पर?

द्वार हृदय के बरबस खोल रखें हैं उस सजनी नें,
कठिन परीक्षा देनी है उसे इक अनजाने को,
अपनेपन की परिभाषा इक नई लिखनी है उसको,
क्या वो अपरिचित अपनाएगा उस भाषा को?

मुक्ति भाव खोए से है सजनी की जड़ आँखों में,
भविष्य धुमिल है उसकी घनघोर कुहासों में,
पाँव थमें है स्तंभ शेष से, असमंजस है उसके मन में,
क्या मूक प्राणों के निर्णय ऐसे होते हैं जीवन में?

Wednesday, 30 March 2016

बेजुबाँ हृदय

मूक हृदय की पीड़ा कभी कह नही पाए वो लब!

सुलगती रही आग सी हृदय के अंतस्थ,
तड़पती रही आस वो हृदय के अंतस्थ,
झुलसती रही उस ताप से हृदय के अंतस्थ,
दबी रही बात वो हृदय के अंतस्थ!

बेजुबाँ हृदय की भाषा कब समझ सके हैं सब!

धड़कनों की जुबाँ कहता रहा मूक हृदय सदा,
भाव धड़कनों की लब तक न वो ला सका,
पीड़ा उस हृदय की नैनों ने लेकिन सुन लिया,
बह चली धार नीर की उन नैनों से तब!

मूक हृदय की पीड़ा कभी कह नही पाए वो लब!

Saturday, 13 February 2016

मूक जेहन

मूक जेहन वाणी विहीन,
भाषा जेहन की आज अक्षरहीन,
परछाईयों मे घिरा, परछाईयों से होता व्याकुल।

परछाईं एक सदियों से जेहन में,
अंगड़़ाई लेती मृदुल पंखुड़ी बन।

मिला जीवन मे बस दो पल वो,
यादें जीवन भर की दे गया वो।
मृदुल स्नेह की चंद बातो में ही,
सौदा उम्र भर का कर गया वो।

जेहन की गहराई मे शामिल वो,
स्मृति की छाँव पाकर रहता वो।

अंकित स्मृति पटल पर अब वो,
मन उपवन की वादी मे अब वो,
जेहन की स्मृतिगृह मे रहता वो,
मंद-मंद सासों में मदमाता। वो।

यादों की परछाईयों मे घिरा जेहन,
स्मृति स्नेह में रम व्याकुल अब वो।

कहती भी क्या वाणी विहीन अक्षरहीन भाषा उसकी?
 मूक जेहन आज भी वाणी विहीन,
भाषा जेहन की आज अब भी अक्षरहीन,
परछाईयों मे घिरा, परछाईयों से ही व्याकुल जेहन।