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Friday, 1 January 2021

नव-परिचय

हाथ गहे, अब सोचे क्या! ओ अपरिचित!
माना, अपरिचित हैं हम-तुम,
पर, ये कब तक?
कुछ पल, या कि सदियों तक!

देखो ना, तुम आए जब, द्वार खुले थे सब!
सब्र के बांध, टूट चुके थे तब,
अ-परिचय कैसा?
नाहक में, ये संशय कब तक?

आओ बैठो, शंकित मन को, धीर जरा दो!
दुविधाओं को, तीर जरा दो,
आस जरा ले लो!
संशय में, पीड़ पले कब तक?

अब सोचे क्या, नव-परिचय की यह बेला?
दो हाथों की, इक गाँठ बना,
इक विश्वास जगा,
ये सांस चले, संग सदियों तक!

हर्ष रहे, नव-वर्ष मनें, परिचय की गाँठ बंधे,
चैन धरे, रहे फिर हाथ गहे,
कोई नवताल सुनें,
कुछ पल क्या? सदियों तक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 10 March 2019

अपरिचित या पूर्व-परिचित

अपरिचित हो, या हो पूर्व परिचित तुम!
स्वप्न सरीखे, क्यूँ लगते हो तुम?
ऐ अपरिचित, कौन हो, कहो ना! कौन हो तुम?

हो जाने-पहचाने, या अंजाने से,
कुछ अपने हो, या हो बिल्कुल बेगाने से,
परिचय की, किस परिधि में आते हो,
अविस्मृत, यादों में हरपल रहते हो,
कहो ना, मेरे क्या लगते हो तुम?

अपरिचित हो, या हो पूर्व परिचित तुम!
स्वप्न सरीखे, क्यूँ लगते हो तुम?
ऐ अपरिचित, कौन हो, कहो ना! कौन हो तुम?

मन की घाटी में, फलीभूत होते हो,
पर्वत पर घटाओं जैसे, घनीभूत होते हो,
कोई सर्द हवाओं से, अनुभूत होते हो,
विहँसते फूल जैसे, प्रतिभूत होते हो,
कहो ना, मेरे क्या लगते हो तुम?

अपरिचित हो, या हो पूर्व परिचित तुम!
स्वप्न सरीखे, क्यूँ लगते हो तुम?
ऐ अपरिचित, कौन हो, कहो ना! कौन हो तुम?

संग निशा के, तुम जग पड़ते हो,
चुप सा होता हूँ मैं, जब तुम कुछ कहते हो,
तिरोहित रातों में, हर-क्षण संग रहते हो,
सम्मोहित बातों से, मन को करते हो,
कहो ना, मेरे क्या लगते हो तुम?

अपरिचित हो, या हो पूर्व परिचित तुम!
स्वप्न सरीखे, क्यूँ लगते हो तुम?
ऐ अपरिचित, कौन हो, कहो ना! कौन हो तुम?

घेरे दुविधा में, हर-पल रहते हो,
असमंजस की धारा में, संशय सा बहते हो,
बलखाती नदिया सी, बस बहते रहते हो,
सुस्त समीर सा, कभी छूकर बहते हो,
कहो ना, मेरे क्या लगते हो तुम?

अपरिचित हो, या हो पूर्व परिचित तुम!
स्वप्न सरीखे, क्यूँ लगते हो तुम?
ऐ अपरिचित, कौन हो, कहो ना! कौन हो तुम?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday, 28 April 2016

अपरिचित अपना सा

परिचित ही था मेरा वो, अपरिचित मुझको कब था वो!

यह कैसा परिचय, एक अपरिचित शख्स से,
ओझल है जो अबतक परिचय की नजरों से,
कल्पना की सतरंगी घोड़ों पर चढ़ आता वो,
परिचय की किन डोरों से मन को बांधता वो।

परिचित लगता अब वो, अपरिचित मुझको कब था वो!

हम कहते है जिसे परिचय, क्या सच में है वो,
या प्रतिविम्ब है इक, या बस इक छलावा वो,
अपरिचित सा जब भी कोई इस जीवन में हो,
प्रश्न अनेंकों मन में, उठने लगते न जाने क्यों।

परिचित होने से पहले, अपरिचित से लगते क्युँ वो!

कल्पना हो या छलावा, मन को है प्यारा वो,
अन-सुने गीत यादों में, हर पल गनुगुनाता वो,
अनुराग स्पर्श के, कल्पनाओं में अलापता वो,
जन्मों का ये परिचय, अपरिचित कब था वो।

परिचित सदियों से वो, अपरिचित मुझको  कब था वो!