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Saturday 12 March 2022

समय से परे

गहन अनुभूतियों ने, हौले से सहलाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

किसकी परछाईं थी, जो दबे पांव आई थी!
चुप सी बातों में, कैसी गहराई थी?
जैसे, वियावान में, गूंज कोई लहराया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

संकोचवश, वो शायद कुछ कह ना पाए हों!
वो, दो पंखुड़ियां, खुल ना पाए हों!
अनियंत्रित पग ही, उन्हें खींच लाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

अक्सर, उसकी ही बातें, अब करता है मन,
बिन मौसम, कैसा छाया है ये घन!
पतझड़ में, डाली फूलों से भर आया था,
न जाने, कौन यहां आया था! 

भ्रम मेरा ही होगा, सत्य ये हो नहीं सकता!
नहीं एक भी कारण, आकर्षण का,
शायद, बावरे इस मन ने ही भरमाया था, 
न जाने, कौन यहां आया था!

पर हूँ वहीं, अब भी, लिए वही अनुभूतियां,
पल सारे, अब भी, कंपित हैं जहां,
सीमाओं से परे, समय जिधर लाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

गहन अनुभूतियों नें, हौले से सहलाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 9 December 2020

उम्मीद की किरण

नन्हीं सी इक लौ, बुझ न पाई रात भर,
वो ले आई, धूप सुबह की!

उम्मीद थी वो, भुक-भुक रही जलती,
गहन रात की आगोश में,
अपनी ही जोश में,
पलती रही!
वो पहली किरण थी, धूप की!

उजाले ही उजाले, बिखरे  गगन पर,
इक दिवस की आगोश में,
नए इक जोश में,
हँसती रही,
वो उजली किरण सी, धूप की!

ये दीप, आस का, जला उम्मीद संग,
तप्त अगन की आगोश में,
तनिक ही होश में,
खिलती रही,
वो धुंधली किरण सी, धूप की!

नन्हीं सी इक लौ, बुझ न पाई रात भर,
वो ले आई, धूप सुबह की!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)