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Monday, 29 January 2024

मृत्यु या मोक्ष

कसता ही जाए, इक आगोश,
मृत्यु या मोक्ष!

कुछ आशा,
कुछ निराशा के, ये कैसे पल!
बस होनी है, इक,
या आवागमन, या कोई घटना,
कुछ घटित, कुछ अघटित,
हो जाए समक्ष,
या परोक्ष!

कसता ही जाए, इक आगोश,
मृत्यु या मोक्ष!

टलता कब,
सहारे उस रब के, रहता सब,
ये उम्र, ढ़ले कब,
घेरे सांसों के, जाने टूटे कब!
और मोह रुलाए पग-पग,
परे, जीवन के,
दूजा पक्ष!

कसता ही जाए, इक आगोश,
मृत्यु या मोक्ष!

सजग निशा,
सुलग-सुलग, बुझ जाती उषा,
यूं चलता ही जाए,
निरंतर काल-चक्र का पहिया,
उस ओर, जहां है क्षितिज,
या, अंतिम इक,
काल-कक्ष!

कसता ही जाए, इक आगोश,
मृत्यु या मोक्ष!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 9 December 2020

उम्मीद की किरण

नन्हीं सी इक लौ, बुझ न पाई रात भर,
वो ले आई, धूप सुबह की!

उम्मीद थी वो, भुक-भुक रही जलती,
गहन रात की आगोश में,
अपनी ही जोश में,
पलती रही!
वो पहली किरण थी, धूप की!

उजाले ही उजाले, बिखरे  गगन पर,
इक दिवस की आगोश में,
नए इक जोश में,
हँसती रही,
वो उजली किरण सी, धूप की!

ये दीप, आस का, जला उम्मीद संग,
तप्त अगन की आगोश में,
तनिक ही होश में,
खिलती रही,
वो धुंधली किरण सी, धूप की!

नन्हीं सी इक लौ, बुझ न पाई रात भर,
वो ले आई, धूप सुबह की!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 24 August 2019

धुंध

बिंब है वो, या प्रतिबिम्ब है आप का!
या धुंध के साये तले, ख्वाब है वो रात का!

दबी सी आहटों में, आपका आना,
फिर यूँ, कहीं खो जाना,
इक शमाँ बन, रात का मुस्कुराना,
पिघलते मोम सा, गुम कहीं हो जाना,
भर-भरा कर, बुझी राख सा,
आगोश में कहीं,
बिखर जाना आप का!

बिंब है वो, या प्रतिबिम्ब है आप का!
या धुंध के साये तले, ख्वाब है वो रात का!

अक्श बन कर, आईने में ढ़लना,
रूप यूँ, पल में बदलना,
पलकों तले, इक धुंध सा छाना,
टपक कर बूँद सा, आँखों में आना,
टिम-टिमा कर, सितारों सा,
निगाहों में कहीं,
विलुप्त होना आप का!

बिंब है वो, या प्रतिबिम्ब है आप का!
या धुंध के साये तले, ख्वाब है वो रात का!

दिवा-स्वप्न सा, हर रोज छलना,
संग यूँ, कुछ दूर चलना,
उन्हीं राह में, कहीं बिछड़ना,
विरह के गीत में, यूँ ही ढ़ल जाना,
निकल कर, उस रेत सा,
इन हाथों से कहीं,
फिसल जाना आप का!

बिंब है वो, या प्रतिबिम्ब है आप का!
या धुंध के साये तले, ख्वाब है वो रात का!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday, 16 July 2018

समय की आगोश में

समय बह चला था और मैं वहीं खड़ा था ......

मैं न था समय की आगोश में,
न फिक्र, न वचन और न ही कोई बंधन,
खुद की अपनी ही इक दुनियां,
बाधा विमुक्त स्वतंत्र उड़ने की चाह,
लक्ष्य से अंजान इक दिशाविहीन उड़ान,
समय को मैं कहां पढ़ सका था?

सब कुछ तो था मेरे सम्मुख,
समय की लहर और बहती हुई पतवार,
न था पर किसी पर ऐतबार,
फिर भी सब कुछ पा लेने की चाहत,
स्व की तलाश में सर्वस्व ही छूटा था पीछे,
वो किनारा मै पा न सका था?

यूं ही पड़ी संस्कारों की गठरी,
बाहर रख दी हों ज्यूं चीजें फिजूल की,
रिवाजों से अलग नया रिवाज,
आप से तुम तक का बेशर्म सफर,
सम्मान को ठेस मारता हुआ अभिमान,
समय को मैं कहां पढ़ सका था?

अब ढूंढ़ता हूं मैं वो ही समय,
जिसकी आगोश में मैं भी ना रुका था,
विपरीत मैं जिसके चला था,
जिसकी धार में सब बह चुका था,
आचार, विचार, संस्कार अब कहां था?
हाथों से अब समय बह चला था!

और मैं मूकद्रष्टा सा, बस वहीं खड़ा था ......

Saturday, 16 April 2016

अंजाना

कुछ अंजान से शक्ल जो, यादों मे ही बस हैं आते!

साँसों में इक आहट सी भरकर,
कहीं खो गया वो, अंजान राहों मे टूटकर,
अब समय ठहरा हुअा है शिला-सा,
निष्पलक लोचन निहारती, साँसों की वो ही डगर।

चल रही उच्छवास, आँधियों की वेग से,
कहीं खोया है अंजान वो, धड़कनों की परिवेश से,
वो क्षण कहाँ रुक सका है, समय की आगोश से,
हृदय अचल थम रहा है, उस अंजान की आहटों से।

शक्ल अंजान एेसे क्युँ हृदय में समाते?
समय हर पल गुजरता, क्षण कहाँ उसमें समाते,
निष्पलक नैन वो जहाँ अब, सपने कभी आते न जाते,
अब अंजान सा शक्ल वो, यादों मे ही सिर्फ आते।

Monday, 14 March 2016

खालीपन का प्रेम

कभी कभी एक अनचाहा सा खालीपन .........

और ऐसे में कभी कभी,
कुछ लम्हे ज़िन्दगी के,
सुकून से बिताने को मन करता है ,,,,
और कभी कुछ पाने, कुछ खोने,
किसी को अपना बनाने,
या ऐसे मे किसी के होने का मन करता है .....,

इन लम्हों में बस एक साथी है मेरा....
जो हर पल हर समय साथ होता है मेरे,
मेरे सुख और मेरे दुःख की वेला में,
मेरे जीवन में रंग भरने का काम करता है,
वो है मेरी डायरी "जीवन कलश"
और उसका नि:स्वार्थ आजीवन प्रेमी 'कलम " ......

थिरकता है वो लम्हा जब,
दोनो एक दुसरे से मिल जाते है,
और बिछड़ने का नाम ही नहीं लेते है....,,,,
कोई मेरा साथ दे या न दे....
मेरा कोई हमदम हो या न हो,
ये आकण्ठ भर देते हैं मेरे खालीपन को.....

लगता है जैसे.....
सब कुछ मिल चुका है मुझे,,,,,,
मेरी हमदम मेरी आगोश मे है,
गुदगुदा रही है ये जैसे मेरी मानस को,
मेरी एहसासों को सुरखाब के पर लग जाते हैं तब......