अब, कैद हो चुके तुम, धुँधले से नैनों में!
भटकोगे, अन्तर्मन के इस सूने वन में,
कल्पनाओं के दारुण प्रांगण में,
क्या रह पाओगे?
पहले तो, बनती थी, इक परछाईं सी,
कभी, पल-भर में गुम होते थे!
कभी तुम होते थे!
तेरे ही सपने, पलते थे उड़ते-उड़ते से,
पर, डरता था, कुछ कहने से,
उड़ते सपनों से!
कैद हो चली, तेरे ही यादों की परछाईं,
लेकिन, आँखें हैं अब धुंधलाई,
जा पाओगे कैसे!
रोकेंगी तुझको, तेरी यादों के अवशेष,
नैनों का, धुंधलाता ये परिवेश,
जा ना पाओगे!
इन्हीं अवशेषों के मध्य, बजती हुई दूर,
गुनगुनाती सी, होगी इक धुन,
वही, शेष हूँ मैं!
गाते कुछ पल होंगे, बीते वो कल होंगे,
शायद, एकाकी ना पल होंगे,
रुक ही जाओगे!
या भटकोगे, अन्तर्मन के सूने से वन में,
यातनाओं के, दारुण प्रांगण में,
कैसे रह पाओगे?
अब, कैद हो चुके तुम, धुँधले से नैनों में!
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