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Sunday, 5 January 2020

ओस

गोल-गोल, कुछ उजली-उजली,
पात-पात, पर थी फिसली,
अंग-अंग, प्रकृति संग लिपटी,
चढ़ दूब पर, इतराई,
ओस कण, मन को थी भरमाई!

शीतलता, समेट कर आँचल में,
बाँट डाले, कलियों में,
सराबोर, हुए दूब गलियों में,
आया, नव-जीवन,
मृत-प्राय हो चले, धमनियों मे!

अनमोल, ओस की उजली डली,
निःस्वार्थ, ही निकली,
लाई, मृत कणों में हरियाली,
क्षणिक, जीवन में,
दीर्घ आस, कण-कण में डाली!

देख उन्हें, ये मेरा मन ललचाया,
खुद को, मैं रोक न पाया,
स्वागत में, आ लिपटी पाँवों में,
हौले से, सहलाया,
वो कोमल मन, मैं भी छू आया!

कोमल वो लम्हे, दो ही पल थे,
विस्तृत, वो दो पल थे,
वो दो ही लम्हे, अर्थ भरे थे,
मिला, लघु जीवन,
जाते हर क्षण, जीवन्त बड़े थे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 24 December 2015

ओस के बूंदों की प्रीत

आखिर प्रीत जो ठहरी ...बूंदों से!!
इन ओस की
अल्प बूंदों से भी,
बुझ सकती है मेरी प्यास,
जरा ठहरो तो सही।

पर वो तो ओस हैं,
वो भी एक बूंद,
क्षणिक हैं इनका जीवन,
क्या बुझा पाएगी ये प्यास?
सम्पूर्ण धरा है इसकी प्यासी।

ओस की अल्प बूँद,
तुम्हारा लक्ष्य महान,
अपना हश्र जानते हुए भी
बिछ जाती हो हर रात
धरा के 
कण-कण पर,
इसकी प्यास बुझाने,
आखिर प्रीत जो ठहरी ...!!