गोल-गोल, कुछ उजली-उजली,
पात-पात, पर थी फिसली,
अंग-अंग, प्रकृति संग लिपटी,
चढ़ दूब पर, इतराई,
ओस कण, मन को थी भरमाई!
शीतलता, समेट कर आँचल में,
बाँट डाले, कलियों में,
सराबोर, हुए दूब गलियों में,
आया, नव-जीवन,
मृत-प्राय हो चले, धमनियों मे!
अनमोल, ओस की उजली डली,
निःस्वार्थ, ही निकली,
लाई, मृत कणों में हरियाली,
क्षणिक, जीवन में,
दीर्घ आस, कण-कण में डाली!
देख उन्हें, ये मेरा मन ललचाया,
खुद को, मैं रोक न पाया,
स्वागत में, आ लिपटी पाँवों में,
हौले से, सहलाया,
वो कोमल मन, मैं भी छू आया!
कोमल वो लम्हे, दो ही पल थे,
विस्तृत, वो दो पल थे,
वो दो ही लम्हे, अर्थ भरे थे,
मिला, लघु जीवन,
जाते हर क्षण, जीवन्त बड़े थे!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
पात-पात, पर थी फिसली,
अंग-अंग, प्रकृति संग लिपटी,
चढ़ दूब पर, इतराई,
ओस कण, मन को थी भरमाई!
शीतलता, समेट कर आँचल में,
बाँट डाले, कलियों में,
सराबोर, हुए दूब गलियों में,
आया, नव-जीवन,
मृत-प्राय हो चले, धमनियों मे!
अनमोल, ओस की उजली डली,
निःस्वार्थ, ही निकली,
लाई, मृत कणों में हरियाली,
क्षणिक, जीवन में,
दीर्घ आस, कण-कण में डाली!
देख उन्हें, ये मेरा मन ललचाया,
खुद को, मैं रोक न पाया,
स्वागत में, आ लिपटी पाँवों में,
हौले से, सहलाया,
वो कोमल मन, मैं भी छू आया!
कोमल वो लम्हे, दो ही पल थे,
विस्तृत, वो दो पल थे,
वो दो ही लम्हे, अर्थ भरे थे,
मिला, लघु जीवन,
जाते हर क्षण, जीवन्त बड़े थे!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार(८-०१-२०२०) को "जली बाती खिले सपने"(चर्चा अंक - ३५७४) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
सादर आभार आदरणीया
Deleteआदरणीया पुरुषोत्तम जी, प्रणाम सर्वप्रथम आपको इस अनमोल रचना हेतु बधाई ! प्रकृति की सुन्दरता पर आधारित आपकी यह रचना सत्य में सराहनी एवं मनुष्य को आकर्षित करने में सक्षम है और वर्ण-विन्यास तो सराहना से परे। आपकी लेखनी की ख़ासियत ही यही है कि मुँह से होकर हृदय में समाहित हो जाय।
ReplyDeleteसादर 'एकलव्य'
इस कविता की आत्मा से जुड़ने हेतु साधुवाद आदरणीय एकलव्य जी।
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