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Saturday, 3 July 2021

मन भरा-भरा

मन, क्यूँ भरा-भरा सा है...
गीत, सावन ने, अभी तो, गाया जरा सा है!

यकीं था कि, पाषाण है, ये मन मेरा!
सह जाएगा, ये चोट सारा,
झेल जाएगा, व्यथा का हर अंगारा,
लेकिन, व्यथा की एक आहट,
पर ये भर्राया सा है!

मन, क्यूँ भरा-भरा सा है...
गीत, सावन ने, अभी तो, गाया जरा सा है!

भरम था कि, अथाह है ये मन मेरा!
जल, पी जाएगा ये खारा,
लील जाएगा, ये गमों का फव्वारा,
लेकिन, बादल की गर्जनाओं,
पर ये थर्राया सा है!

मन, क्यूँ भरा-भरा सा है...
गीत, सावन ने, अभी तो, गाया जरा सा है!

गिरी, इक बूँद, टूटा भरम ये सारा!
छूटा, मन पे यकीं हमारा,
लबा-लब सी भरी, मन की धरा,
बेवश, खड़ा हूँ किनारों पर,
मन, चरमराया सा है!

मन, क्यूँ भरा-भरा सा है...
गीत, सावन ने, अभी तो, गाया जरा सा है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 11 January 2020

चोट

शतदल हजार छू के, टोक गए झौंके!

हुए बेजार, टूटे तार-तार!
टीस सी उठी, असह्य सी चोट लगी,
सर्द कोई, इक तीर सी चली,
मन ही, चीर चली,
गुजरे, वो जिधर हो के...

शतदल हजार छू के, टोक गए झौंके!

बार-बार, फिर वो बयार!
हिल उठी, जमीं, नींव ही ढ़ह चुकी,
खड़ी थी, वो वृक्ष भी गिरी,
बिखरे थे, पात-पात,
गुजरे, वो जिधर हो के...

शतदल हजार छू के, टोक गए झौंके!

टोके ना कोई, यूँ बेकार!
अपना ले, यूँ सपने तोड़े न हजार,
चोट यही, मन की न भली,
सूखी है, हर कली,
गुजरे, वो जिधर हो के...

शतदल हजार छू के, टोक गए झौंके!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)