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Tuesday, 20 August 2019

चंद बातें

मंद सांसों में, बातें चंद कह दे!
तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

चुप हो तुम, तो चुप है जहां!
फैली है जो खामोशियाँ!
पसरती क्यूँ रहे?
इक गूंज बनकर, क्यूँ न ढले?
चहक कर, हम इसे कह क्यूँ न दें?
चल पिरो दें गीत में इनको!
बातें चंद ही कह दे!

तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

तू खोल दे लब, कर दे बयां!
दबी हैं जो चिंगारियाँ!
सुलगती, क्यूँ रहें?
इक आग बनकर, क्यूँ जले?
इक आह ठंढ़ी, इसे हम क्यूँ न दें?
बंद होठों पर, इसे रख दे!
बातें चंद ही कह दे!

तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

चंद बातों से, जला ले शमां!
पसरी है जो विरानियाँ!
डसती क्यूँ रहे?
विरह की सांझ सी, क्यूँ ढले?
मंद सी रौशनी, इसे हम क्यूँ न दें?
चल हाथ में, हम हाथ लें!
बातें चंद ही कह दे!

तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

मंद सांसों में, बातें चंद कह दे!
तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 4 December 2016

खामोशियों के छंद

स्तब्ध निशान्त सा है ये आकाश,
स्निग्ध खामोश सी है ये समुन्दर की लहरें,
गुमसुम सी मंद बह रही ये हवाएँ,
न जाने चाह कौन सी मन में दबाए,
तुम ही कुछ बोल दो, कोई छंद खामोशियों को दो....

कहना ये मुझसे चाहती हैं क्या,
निःस्तब्ध सी ये मन में सोचती है क्या,
खोई है कहाँ इनकी गतिशीलता,
यहाँ पहले न थी कभी इतनी खामोशियाँ,
तुम ही कुछ बोल दो, कोई छंद खामोशियों को दो....

शायद बात कोई इनके मन में है दबी,
या ठेस मुझसे ही इसकी मन को है लगी,
चुपचाप अब वो क्युँ रहने लगी,
नासमझ मैं ही हूँ, ना मैं उसकी मन को पढ़ सका,
तुम ही कुछ बोल दो, कोई छंद खामोशियों को दो....

कुछ वजह! मैं भी जान पाता अगर,
मन में है उसके क्या? ये लग जाती मुझको खबर,
मनाने को बार-बार जाता मैं उसकी डगर,
पर गहरा है राज ये, मिन्नतें करूँ तो मैं किधर,
तुम ही कुछ बोल दो, कोई छंद खामोशियों को दो....

ऐ आकाश! तू बादलों की चादर बिछा,
ऐ लहरें! तू आ मचल मेरी पाँवों को दे भीगा,
ऐ हवाएँ! तू राग कोई मुझको सुना,
मन की गिरह खोल दे अनकही मुझको सुना,
अब तो कुछ बोल दो, कोई छंद खामोशियों को दो....

Tuesday, 9 February 2016

रूप लावण्य

रूप लावण्य चंद क्षणों का छंद,
धरा का लावण्य व्यक्त स्वच्छंद,
धरा सी सुंदर रूप धरो हर क्षण,
व्यक्त करो खुद को तुम स्वच्छंद।

विस्तृत धरा रूप लावण्य मनोहर,
व्यक्तित्व उदार अति-सुंदर प्रखर,
स्वच्छंदता आरूढ़ सुंदर पंखों पर,
लावण्य के आवर्त ये मधुर निरंतर।

व्यक्तित्व इक पहलु लावण्य का,
प्रखर करो तुम छंद व्यक्तित्व का,
धरा सी निखरे व्यक्तित्व स्वच्छंद,
रूप लावण्य निखरेगा उस क्षण।