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Friday, 27 March 2020

मेरे नज्म

न नज्मों पे, मेरे जाइएगा!
ये बातें हैं, मन की, उलझ जाइएगा!

हो कैद, पल में, 
कभी, पल को लिखे!
यूँ, अचानक!
कभी, कुछ लिखे, कभी, कुछ भी लिखे!
विचरता, है स्वच्छंद,
अन्तर्द्वन्द, ना समझ पाइएगा!

न नज्मों पे, मेरे जाइएगा!

पलों के, संकुचन,
यूँ ही, गुजरते हुए क्षण!
रोके, ये मन,
थाम ले ये बाहें, कहे, चल कहीं बैठ संग!
गतिशील, हर क्षण,
इन्हीं द्वन्दों में, घिर जाइएगा!

न नज्मों पे, मेरे जाइएगा!

बहती सी, ये धारा,
न पतवार, है ना किनारा!
रोके, ना रुके,
उफनते ये लहर, जलजलों सा है नजारा!
तैरते, ये सिलसिले,
कहीं खुद को, डुबो जाइएगा!

न नज्मों पे, मेरे जाइएगा!

ये सुनता ही नहीं,
है मेरे, दिल की कभी!
ये, जिद्दी बड़ा, 
करता है बक-बक, जी में आए कुछ भी!
पागल सा ये मन,
ये बातें, ना समझ पाइएगा!

न नज्मों पे, मेरे जाइएगा!
ये बातें हैं, मन की, उलझ जाइएगा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 15 February 2018

वक्त के परे

गर हो सके तो मिलो वक्त के परे स्वच्छंद.....

इक राह अनन्त, वक्त के ये द्वन्द,
रोके रुके ना, वक्त के ये छंद,
वक्त के राह की, दिशाएँ दिग्दिगंत,
लिए जा रहा वक्त, मुझको ये किस राह अनन्त....

गर हो सके तो मिलो वक्त के परे स्वच्छंद.....

वक्त की ताल पर, वो झूमता बसंत,
वक्त के काल में डूबता बसंत,
समझ के परे है, वक्त के ये सारे द्वन्द,
बिछी वक्त की बिसात, क्रम से खेलता बसंत....

गर हो सके तो मिलो वक्त के परे स्वच्छंद.....

वक्त के परे, संभावनाएँ हैं अनन्त,
दिशाहीन से वक्त के ये द्वन्द,
छलती रहेंगी हमें, ये दिशाएँ दिग्दिगंत,
आओ चुने हम यहाँ, इन राहों में पड़े मकरंद....

गर हो सके तो मिलो वक्त के परे स्वच्छंद.....

Friday, 12 February 2016

बेफिक्री के क्षण

स्वच्छंद श्वास हैं, बेफिक्र मन का पंछी पावंदियों से है परे...

उड़ बेफिक्र मन मेरे,
बेफिक्री के स्वच्छंद क्षण साथ तेरे,
रवानियाें मे डूबे ये हर्षित पल जीवन के सारे।

दिल करता है रोक लू मैं,
चपल वक्त के इन बढ़ते कदमों को,
इन्हीं खुमारियों मे बीते क्षण जीवन के ये सारे।

हासिल बेफिक्री आज मुझको,
स्फूर्त बेफिक्री की साँसे समाहित मुझमें,
हृदय के तार-तार स्पन्दित बेफिक्री के क्षण में सारे।

पल-पल मुखरित जीवन के,
साँसों की लय हैं आपाधापी से उन्मुक्त,
बेफिक्री के ये स्वच्छंद जीवन क्षण अब मेरे है सारे। 

उड़ने को मुक्त है ये पर मेरे,
उलझनों से मुक्त जीवन के ये क्षण मेरे,
इक विश्वास हैं, बेफिक्र पंछी क्युँ न ऊँची उड़ान भरे...

Tuesday, 9 February 2016

रूप लावण्य

रूप लावण्य चंद क्षणों का छंद,
धरा का लावण्य व्यक्त स्वच्छंद,
धरा सी सुंदर रूप धरो हर क्षण,
व्यक्त करो खुद को तुम स्वच्छंद।

विस्तृत धरा रूप लावण्य मनोहर,
व्यक्तित्व उदार अति-सुंदर प्रखर,
स्वच्छंदता आरूढ़ सुंदर पंखों पर,
लावण्य के आवर्त ये मधुर निरंतर।

व्यक्तित्व इक पहलु लावण्य का,
प्रखर करो तुम छंद व्यक्तित्व का,
धरा सी निखरे व्यक्तित्व स्वच्छंद,
रूप लावण्य निखरेगा उस क्षण।