Saturday, 6 February 2021

परिणति

धूमिल सांझ हो, या जगमग सी ज्योति!
जाने क्या हो, परिणति!
आहुति या पूर्णाहुति!
एक जिद है, तो जिए जाना है!
तपिश में, निखर जाना है!

इक यज्ञ सा जीवन, मांगती है आहुति!
हार कर, जो छोड़ बैठे!
तीर पर ही, रहे बैठे!
ये तो धार है, बस बहे जाना है!
डुबकियाँ ले, पार जाना है!

भूल जा, उन यादों को मत आहूत कर!
हो न जाए, सांझ दुष्कर!
राह, अपनी पकड़!
ठहराव ये, थोड़े ही ठिकाना है!
ये बंध सारे, तोड़ जाना है!

सुबह और शाम, ढूंढते ये अल्पविराम!
संघर्ष, स्वीकारते सहर्ष!
चलते, बिन विराम!
ये संसृति, खुद में ही तराना है!
राग ये ही, सीख जाना है!

गहन अंधेरी रात हो, या प्रदीप्त ज्योति!
जाने क्या हो, परिणति!
आहुति या पूर्णाहुति!
एक प्रण है, तो, पार पाना है!
अगन में, सँवर जाना है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

18 comments:


  1. सुबह और शाम, ढूंढते ये अल्पविराम!
    संघर्ष, स्वीकारते सहर्ष!
    चलते, बिन विराम!
    ये संसृति, खुद में ही तराना है!
    राग ये ही, सीख जाना है....सुंदर पंक्तियों का सृजन
    उम्दा रचना बधाई हो आपको आदरणीय

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन  में" आज शनिवार 06 फरवरी 2021 को साझा की गई है.........  "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (07-02-2021) को "विश्व प्रणय सप्ताह"   (चर्चा अंक- 3970)   पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    --
    "विश्व प्रणय सप्ताह" की   
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-    
    --
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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  4. सुबह और शाम, ढूंढते ये अल्पविराम!
    संघर्ष, स्वीकारते सहर्ष!
    चलते, बिन विराम!
    ये संसृति, खुद में ही तराना है!
    राग ये ही, सीख जाना है!

    यही यथार्थ है... बहुत सुंदर गीत
    साधुवाद 🙏

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  5. सुबह और शाम, ढूंढते ये अल्पविराम!
    संघर्ष, स्वीकारते सहर्ष!
    चलते, बिन विराम!
    ये संसृति, खुद में ही तराना है!
    राग ये ही, सीख जाना है!

    बहुत सटीक , बहुत सुंदर रचना पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा जी 🌹🙏🌹

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  6. गहन अंधेरी रात हो, या प्रदीप्त ज्योति!
    जाने क्या हो, परिणति!
    आहुति या पूर्णाहुति!
    एक प्रण है, तो, पार पाना है!
    अगन में, सँवर जाना है!

    वाह !!बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति,सादर नमन

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  7. अति सुन्दर भाव ।

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    1. हार्दिक आभार आदरणीय अमृता तन्मय जी।

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  8. आपकी इस कविता पर आने में मुझे जो विलम्ब हुआ है, वह मेरी ही हानि रही पुरुषोत्तम जी। बहुत ही प्रेरक अभिव्यक्ति है यह आपकी। जो भी इसे पढ़ेगा, लाभान्वित ही होगा।

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