धूमिल सांझ हो, या जगमग सी ज्योति!
जाने क्या हो, परिणति!
आहुति या पूर्णाहुति!
एक जिद है, तो जिए जाना है!
तपिश में, निखर जाना है!
इक यज्ञ सा जीवन, मांगती है आहुति!
हार कर, जो छोड़ बैठे!
तीर पर ही, रहे बैठे!
ये तो धार है, बस बहे जाना है!
डुबकियाँ ले, पार जाना है!
भूल जा, उन यादों को मत आहूत कर!
हो न जाए, सांझ दुष्कर!
राह, अपनी पकड़!
ठहराव ये, थोड़े ही ठिकाना है!
ये बंध सारे, तोड़ जाना है!
सुबह और शाम, ढूंढते ये अल्पविराम!
संघर्ष, स्वीकारते सहर्ष!
चलते, बिन विराम!
ये संसृति, खुद में ही तराना है!
राग ये ही, सीख जाना है!
गहन अंधेरी रात हो, या प्रदीप्त ज्योति!
जाने क्या हो, परिणति!
आहुति या पूर्णाहुति!
एक प्रण है, तो, पार पाना है!
अगन में, सँवर जाना है!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
ReplyDeleteसुबह और शाम, ढूंढते ये अल्पविराम!
संघर्ष, स्वीकारते सहर्ष!
चलते, बिन विराम!
ये संसृति, खुद में ही तराना है!
राग ये ही, सीख जाना है....सुंदर पंक्तियों का सृजन
उम्दा रचना बधाई हो आपको आदरणीय
हार्दिक आभार अभिनन्दन
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 06 फरवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteहार्दिक आभार अभिनन्दन
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (07-02-2021) को "विश्व प्रणय सप्ताह" (चर्चा अंक- 3970) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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"विश्व प्रणय सप्ताह" की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
हार्दिक आभार अभिनन्दन
Deleteसुबह और शाम, ढूंढते ये अल्पविराम!
ReplyDeleteसंघर्ष, स्वीकारते सहर्ष!
चलते, बिन विराम!
ये संसृति, खुद में ही तराना है!
राग ये ही, सीख जाना है!
यही यथार्थ है... बहुत सुंदर गीत
साधुवाद 🙏
सुन्दर सृजन
ReplyDeleteहार्दिक आभार अभिनन्दन
Deleteबहुत ही सुन्दर कृति।
ReplyDeleteहार्दिक आभार अभिनन्दन
Deleteसुबह और शाम, ढूंढते ये अल्पविराम!
ReplyDeleteसंघर्ष, स्वीकारते सहर्ष!
चलते, बिन विराम!
ये संसृति, खुद में ही तराना है!
राग ये ही, सीख जाना है!
बहुत सटीक , बहुत सुंदर रचना पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा जी 🌹🙏🌹
हार्दिक आभार अभिनन्दन
Deleteगहन अंधेरी रात हो, या प्रदीप्त ज्योति!
ReplyDeleteजाने क्या हो, परिणति!
आहुति या पूर्णाहुति!
एक प्रण है, तो, पार पाना है!
अगन में, सँवर जाना है!
वाह !!बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति,सादर नमन
हार्दिक आभार अभिनन्दन
Deleteअति सुन्दर भाव ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय अमृता तन्मय जी।
Deleteआपकी इस कविता पर आने में मुझे जो विलम्ब हुआ है, वह मेरी ही हानि रही पुरुषोत्तम जी। बहुत ही प्रेरक अभिव्यक्ति है यह आपकी। जो भी इसे पढ़ेगा, लाभान्वित ही होगा।
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