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Sunday, 30 June 2019

निर्बाध पल

जीवन दरिया है, पल ही जरिया है,
चल, हर-पल बहते,
कल-कल करते पल में चल!

दुर्गम ये तेरे पथ, निर्बाध है पल,
रोड़े-काँटे, दुख जो किस्मत नें बांटे,
आएंगे-जाएंगे, इस पथ में,
राहें होगी टेढ़ी, आहें भी संग होगी तेरी,
ले बह जाएगा ये पल!

जीवन दरिया है, पल ही जरिया है,
चल, हर-पल बहते,
कल-कल करते पल में चल!

यूं आकाश न तक, तू ना थक,
कोई आवेग ले, कदमों में वेग भर,
तू नाप धरा, रुक न जरा,
कर प्रशस्त दिशा, यहाँ तू छोड़ निशां,
तुझे, याद रखेगा कल!

जीवन दरिया है, पल ही जरिया है,
चल, हर-पल बहते,
कल-कल करते पल में चल!

कोमल से पल, लाएंगे ये कल,
ये छाल पाँवों के, गले के होंगे माल,
घट जाएंगे, पीड़ा के ज्वर,
करेंगे शंखनाद, निष्प्राण हुए हर नाद,
आ, लहरों सा मचल!

जीवन दरिया है, पल ही जरिया है,
चल, हर-पल बहते,
कल-कल करते पल में चल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday, 8 June 2016

प्रशस्त प्रखर मंजिल

क्षितिज को निहार तू, विस्तृत जरा आयाम कर,
विशाल सोंच को बना, मन की गगन का विस्तार कर,
प्रतिभा की चाँदनी से, आसमाँ में प्रकाश भर,
क्षितिज की आगोश में, मंजिल का तू विस्तार कर।

मंजिलों से आगे, कितने ही मुकाम हैं बाँकी,
अभी तो जिन्दगी के, यहाँ किस्से तमाम हैं बाँकी,
हसरतों के पंखों को, तू जरा फैला कर देख,
इन बादलों से उपर, अभी कई आसमाँ हैं बाँकी।

यह नहीं मंजिल तेरी, प्रहर है यह विराम की,
ठहर इक पल जरा, मंजिल प्रशस्त कर अपनेे मार्ग की,
कर्म की लाठी हाथों मे ले, निरस्त तू बाधाओं को कर,
दिखेगी तुझको राह नई, मंजिलें हो जाएंगी प्रखर।

विश्राम तो बस मौत है, गतिशील हैं राहें यहाँ,
मंजिलों से बेखबर, जीवन की अनगिनत चाहें यहाँ,
कुशाग्र प्रखर रौशनी में, राह तू खुद अपनी बना,
इन मंजिलों के आगे कहीं, तू छोड़ जा अपने निशां।

Saturday, 9 January 2016

कदमों के निशान

कभी सोचता!

जीवन में जो भी हासिल कर पाऊँ,
उनके निशान चंद छोड़ जाऊँ,
सागर तट मीलों चलता रहता,
निरंतर सोचता जाता बस यही,
साधता स्वार्थ सिर्फ अपनी,
लिखता रहता कर्मों के बही,
पर निश्छल चंचल सागर की लहरें,
धो जाती सब स्वार्थ के निशाँ,
ढूंढता वापस मुड़कर जब,
जीवन सागर तट यहाँ,
मिल पाते नही कदमों के निशाँ।

फिर सोचता!

बनते कब निशां कदमों के सागर किनारे,
अनवरत लहरे सागर की स्वयं,
निस्वार्थ करती रहती कार्य दिन रात,
और अपने ही हाथों पोछती रहती,
निरंतर अपने कदमो के निशान।

फिर खुद से कहता!

जीवन की राहें मिलती हैं सागर से,
कटीली, पथरीली रास्तों में चलकर,
पथ जीवन की कहाँ सुरीली प्यारे,
तू इन पत्थरों पर नित हो अग्रसर,
मानव कल्यान को ध्येय बनाकर,
करता जा कर्म तू निःस्वार्थ निरंतर,
बनते जाएंगे खुद ही तेरे पीछे,
अमिट तेरे कदमों के निशाँ प्यारे।