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Saturday, 12 June 2021

प्रवाह में

उजली सी, राह में,
जिन्दगी के, इस प्रवाह में, 
बाकी रह गई,
इक अजनबी सी, 
चाह शायद!

है बेहद, अजीब सा मन!
हासिल है सब,
पर अजीज है, बस चाह वो,
है अजनबी,
पर है, खास वो,
दूर है,
पर है, पास वो,
ख्वाब है,
कर रहा, है बेताब वो,
कुछ फासलों से,
यूँ, गुजर चुके हैं, चाह शायद!

सफर में, साथ में,
वही तस्वीर लिए, हाथ में, 
बाकी रह गई,
इक अजनबी सी, 
चाह शायद!

मौन है वो, पर गौण नहीं!
ये तोलती है मन,
झकझोरकर, टटोलती है मन,
कभी, सुप्त वो,
है कभी, जीवन्त वो,
अन्तहीन सा,
प्रवाह, अनन्त वो,
आस-पास वो,
मन ही, किए वास वो,
कभी, आहटों से,
तोड़ती है मौन, चाह शायद!

ज्वलन्त रात में,
जलते वही हैं, चाह शायद!
बाकी रह गई,
कोई अजनबी सी,
चाह शायद!

अजनबी सी, इस राह में!
यूँ तो, मिला था,
कई अजनबी सी, चाह से,
कुछ, प्रबल हुए,
कुछ, बदल से गए,
कुछ, गुम हुए,
कुछ, पीछे ही पड़े,
रूबरू हो कर,
इस राह में,
कई अलविदा, कह गए,
अजनबी से कुछ,
अब भी बचे, चाह शायद!

मन की वादियों में,
वही ढूंढते हैं, राह शायद!
बाकी रह गई,
कोई अजनबी सी,
चाह शायद!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 20 December 2020

और कितने दूर

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

सब तो, छूट चुका है पीछे,
फिर भागे मन, किन सपनों के पीछे,
वो, जो है रातों के साए,
कब हाथों में आए,
जाने, कहाँ-कहाँ, भटकाएगी,
अधूरी मन की चाह!

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

जाने कब, भूल चुके सब,
मन के स्नेहिल बंधन, तोड़ चले कब,
बिसराए, नेह भरे गंध, 
वो गेह भरे सुगंध,
तन्हा पल में, याद दिलाएगी,
बन कर इक आह!

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

अब तक, लब्ध रहा क्या!
क्या प्रासंगिक थी, सारी उपलब्धियाँ!
गिनता हूँ अब तारों को,
मलता हूँ हाथों को,
झूठी चाहत, क्या करवाएगी?
बस, भटकाएगी राह!

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

प्रसंग कई, जब छूट चले,
जाना, जब खुद अप्रासंगिक हो चले,
तर्क, भला  क्या देना!
राहों में, क्या रोना!
इस प्रश्नकाल में, जग जाएगी!
इक तृष्णा इक चाह!

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 11 June 2020

कोख

हँस उठी, कोख!
मूर्त हो उठी, अधूरी कोई कल्पना!

हँस उठी, कोख!

तब, कोख ने जना,
एक सत्य, एक सोंच, एक भावना,
एक भविष्य, एक जीवन, एक संभावना,
एक कामना, एक कल्पना,
एक चाह, एक सपना,
और, विरान राहों में,
कोई एक अपना!

हँस उठी, कोख!

वो हँसीं, एक जन्मी,
विहँस पड़ी, संकुचित सी ये दिशाएँ,
जगे बीज, हुए अंकुरित, करोड़ों आशाएँ,
करोड़ों नयन, करोड़ों मन,
धड़के, करोड़ों धड़कन,
जगी, एक सी गुंजन,
एक सा कंपन!

हँस उठी, कोख!

कह उठा, कालपथ,
जग पड़ा भविष्य, थाम ले तू ये रथ,
यही एक वर्तमान, ना ही दूजा कोई सत्य,
एक ही पथ, एक ही राह,
रख न कोई और चाह,
बदल न, तू प्रवाह,
एक है गर्भगाह!

हँस उठी, कोख!
मूर्त हो उठी, अधूरी कोई कल्पना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 15 March 2020

मन चाहे

मन चाहे, जी लूँ दोबारा!
जीत लूँ सब, जो जीवन से हारा!

संदर्भ नए, फिर लिख डालूँ,
नजर, विकल्पों पर फिर से डालूँ,
कारण, सारे गिन डालूँ,
हारा भी, तो मैं,
क्यूँ हारा?

मन चाहे, जी लूँ दोबारा!
जीत लूँ सब, जो जीवन से हारा!

खोए से वो पल, दोहरा लूँ,
जीवन से, बिखरे लम्हे पा डालूँ,
मोती, बिखरे चुन डालूँ,
बिखरा तो, वो पल,
क्यूँ बिखरा?

मन चाहे, जी लूँ दोबारा!
जीत लूँ सब, जो जीवन से हारा!

ख्वाब अधूरे, चाहत के सारे,
जीवन के, भटकावों से हम हारे,
खुद को ही, समझा लूँ,
ठहरा भी, तो मैं,
क्यूँ ठहरा?

मन चाहे, जी लूँ दोबारा!
जीत लूँ सब, जो जीवन से हारा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 8 December 2019

ये सांझ कैसे

बीत जाते हैं, न जाने ये वक्त कैसे!
अभी तो, सुबह थी, ये नई जिन्दगी की,
सिमट आई, आँखों में सांझ कैसे?

कल-कल बही थी, इक धार सी ये!
अभी तो, शुरुआत थी, इक प्रवाह की,
रुकने लगी, अभी से ये धार कैसे?

लेनी थी अभी , चैन की चँद साँसें!
अभी तो, पहली थी, साँस एहसास की,
सिमटने लगी, है ये एहसास कैसे?

विस्मृत कर गई थी, यूँ ये क्षितिज!
फैली थी, अभी तो, ये किरण भोर की,
छाने लगी, अभी से ये रात कैसे?

सिमटते हैं कैसे, प्रबल से प्रवाह ये!
अभी तो, उत्थान थी, ये इक प्रवाह की,
रुकने लगी, अभी से प्रवाह कैसे?

समेटा है किसने, आँचल गगन से!
सजी थी, अभी तो, गगन ये दुल्हन सी,
हुई बेरंग, गगन ये आज ही कैसे?

जगते ही चाह, छूट जाते हैं ये राह!
अभी था जीवन, अब है परवाह इसकी,
बदलते रहे, ये जीवन के राह कैसे!

बीत जाते हैं, न जाने ये वक्त कैसे!
अभी तो, सुबह थी, ये नई जिन्दगी की,
सिमट आई, आँखों में सांझ कैसे?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 4 April 2019

जीवन-मृत्यु

प्रवाह में जीवन के, क्यूँ मृत्यु की परवाह करूँ!

गहन निराशा के क्षण, मुखरित होते हैं दो प्रश्न,
दो ही विकल्प, समक्ष रखता है जीवन?
मृत्यु स्वीकार करूँ, या जीवन अंगीकार करूँ!
जग से प्रयाण करूँ, या कुछ प्रयास करूँ!

जीवन के हर संदर्भ में, पलता है दो भ्रम!
किस पथ है मंजिल, मुकम्मल कौन सी चाहत?
सारांश है क्या? क्यूँ होता है मन आहत?
क्या रखूँ, क्या छोड़ूँ, क्या भूलूँ, क्या याद करूँ?

धुन जीवन के सुन लूँ, या मृत्यु ही चुन लूँ!
संदर्भ कोई आशा के, निराश पलों से चुन लूँ!
गर्भ में मृत्यु के, क्या चैन पाता है जीवन?
उलझाते हैं प्रश्न, इक क्षण मिलती नहीं राहत!

अटल है मृत्यु, पर शाश्वत सत्य है जीवन भी....
मृत्यु के पल भी, जीती है जीने की चाहत!
क्यूँ ना, जीवन जी लूँ, क्यूँ मृत्यु को याद करूँ!
जीवन के साथ चलूँ, जीने की चाह बुनूँ!

प्रवाह में जीवन के, क्यूँ मृत्यु की परवाह करूँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday, 14 November 2018

अजनबी चाह

बाकी रह गई है,
कोई अजनबी सी चाह शायद....

है बेहद अजीब सा मन!
सब है हासिल,
पर अजीज है, बस चाह वो,
है अजनबी,
पर है खास वो,
दूर है,
पर है पास वो,
ख्वाब है,
कर रहा है बेताब वो,
कुछ फासलों से,
यूँ गुजर रहे हैं, चाह शायद!

सफर में साथ में,
रहते वही हैं, चाह शायद!
बाकी रह गई है...
कोई अजनबी सी चाह शायद....

मौन है ये, पर गौण नहीं!
ये तोलती है मन,
झकझोरकर, टटोलती है मन,
कभी सुप्त ये,
है कभी जीवन्त ये,
अन्तहीन सा,
प्रवाह अनन्त ये,
आस-पास ये
मन ही, किए वास ये,
कभी आहटों से,
तोडती है मौन, चाह शायद!

ज्वलन्त रात में,
जलते वही हैं, चाह शायद!
बाकी रह गई है...
कोई अजनबी सी चाह शायद....

अजनबी से इस राह में!
यूँ तो मिला मैं,
कई अजनबी सी चाह से,
कुछ प्रबल हुए,
कुछ बदल से गए,
कुछ गुम हुए,
कुछ पीछे ही पड़े,
रूबरू हो कर,
इस राह में,
कई अलविदा कह गए,
अजनबी से कुछ,
अब भी बचे हैं, चाह शायद!

मन की वादियों में,
वही ढूंढते हैं, राह शायद!
बाकी रह गई है...
कोई अजनबी सी चाह शायद....

Wednesday, 28 September 2016

इतनी सी चाह

प्रिय, बस कुछ और नहीं, प्रिय, और नहीं कुछ चाह !

चाहूँ बस इतना सा,
ले लूँ मैं हाथों में हाथ,
अंतहीन सी दुर्गम राहों पर,
पा जाऊँ मै तेरा साथ।

प्रिय, बस कुछ और नहीं, प्रिय, और नहीं कुछ चाह !

चुन लूँ राहों के वो काँटें,
चुभते हैं पग में जो चुपचाप,
घर के कोने कोने मे मेरे,
तेरी कदमों के हो छाप।

प्रिय, बस कुछ और नहीं, प्रिय, और नहीं कुछ चाह !

रख दो शानों पर मेरे,
तुम स्नेह भरे सर की सौगात,
भर लो आँखों मे सपने,
सजाऊँ मैं तेरे ख्वाब।

प्रिय, बस कुछ और नहीं, प्रिय, और नहीं कुछ चाह !

वादी हो इक फूलों की,
चंचल चितवन हो जिसमें तेरी,
झोंके पवन के बन आऊँ मैं,
खेलूँ मैं बस तेरे साथ।

प्रिय, बस कुछ और नहीं, प्रिय, और नहीं कुछ चाह !

चाह यही मेरी अनन्त,
तुम बनो इस जीवन का अन्त,
अंतहीन पल का हो अंत,
तेरी धड़कन के साथ।

प्रिय, बस कुछ और नहीं, प्रिय, और नहीं कुछ चाह !

Wednesday, 8 June 2016

प्रशस्त प्रखर मंजिल

क्षितिज को निहार तू, विस्तृत जरा आयाम कर,
विशाल सोंच को बना, मन की गगन का विस्तार कर,
प्रतिभा की चाँदनी से, आसमाँ में प्रकाश भर,
क्षितिज की आगोश में, मंजिल का तू विस्तार कर।

मंजिलों से आगे, कितने ही मुकाम हैं बाँकी,
अभी तो जिन्दगी के, यहाँ किस्से तमाम हैं बाँकी,
हसरतों के पंखों को, तू जरा फैला कर देख,
इन बादलों से उपर, अभी कई आसमाँ हैं बाँकी।

यह नहीं मंजिल तेरी, प्रहर है यह विराम की,
ठहर इक पल जरा, मंजिल प्रशस्त कर अपनेे मार्ग की,
कर्म की लाठी हाथों मे ले, निरस्त तू बाधाओं को कर,
दिखेगी तुझको राह नई, मंजिलें हो जाएंगी प्रखर।

विश्राम तो बस मौत है, गतिशील हैं राहें यहाँ,
मंजिलों से बेखबर, जीवन की अनगिनत चाहें यहाँ,
कुशाग्र प्रखर रौशनी में, राह तू खुद अपनी बना,
इन मंजिलों के आगे कहीं, तू छोड़ जा अपने निशां।

Sunday, 14 February 2016

अभिलाषा पल की

प्रिय, युग-युग की चाह पूरी कर लेता इक पल में।

चाह अनन्त पलते इस मन में, 
घड़ियाँ बस पल दो पल जीवन में,
चाह सपनों की हसीन लड़ियों से, 
सजाता जीवन की घड़ियों को संग तेरे।

प्रिय, युग-युग की चाह पूरी कर लेता इस पल में।

आज मोहक इस वेला में,
सुधि फिर लेती मन में इक आशा,
अरमान कई सजते इस तन मन में,
जीवन संध्या प्रहर पलती कैसी अभिलाषा?

प्रिय, युग-युग की चाह पूरी कर लेता इक पल में।

डूब रहा मन अनचाही चाहों में,
सुख सपनों के नगरी की प्रत्याशा,
झंकृत हो रहा अनगिनत तार मन में,
जीवन की इस वेला में ये कैसी अभिलाषा?

प्रिय, युग-युग की चाह पूरी कर लूँ इक पल में।

Thursday, 14 January 2016

भयावह आँखें

शायद कितने मृत चाह दफन उनमें,
सिहर जाता हूँ उन आँखों को देख!

अजब सी अपूरित आस है इनमें,
जीवन का एक टूटा विश्वास इनमें,
कत्ल होते अरमानों की तस्वीर इनमें,
सिहर जाता हूँ उन आँखों को देख!

हृदय विदारक दर्द की यादें समेटे,
भविष्य की विकराल चिंताएं लपेटे,
आशा के महलों के सब चौखट टूटे,
सिहर जाता हूँ उन आँखों को देख!

घने अँधेरों सा काला कोहरा इसमें,
तुफानी बवंडर सी डर का घेरा इसमें,
खूनी उत्पात सा है रैन बसेरा इसमें,
सिहर जाता हूँ उन आँखों को देख!

शायद कितने मृत चाह दफन उनमें,
सिहर जाता हूँ उन आँखों को देख!

Wednesday, 13 January 2016

और नहीं कुछ तुमसे चाह!

कुछ हल्का कर दो जीवन की व्यथा-भार,
तुम दे दो सुख के क्षण जीवन आभार,
प्रिय, बस और नही कुछ तुमसे चाह!

व्यथा-भार जीवन की संभलती नही अकेले,
दुःख के क्षण जीवन के चिरन्तन से खेले,
तुम दे दो साथ, और नही कुछ तुमसे चाह!

अर्थ जीवन का अकेले समझ नही कुछ आता,
राह जीवन की लम्बी व्यर्थ मुझे है लगता,
तुम हाथ थाम लो, और नही कुछ तुमसे चाह!

Tuesday, 22 December 2015

अवरोह वेला गीत कोई तो गाता?

जीवन पथ आरोहित होता जाता,
सासों का प्रवाह प्रबल हो गाता,
धमनियों के रक्त प्रवाह अब थक सा जाता,
जीवन अवरोह मुखर सामने दिखता,
नदी के इस पार साथ कोई तो गाता।

गीत जिनमें हो सुरों का मधुर आरोह,
लय, नव ताल, मादकता और सुकुँ का प्रारोह,
उत्कंठा हो जी लेने की, सुदूर हृदय मे बस जाने की,
किंतु मेरी रागिनी हो पाती नही निर्बंध निर्झर।

अर्धजीवन की इन सिमटते पलों मे,
आरोहित होते संकुचित पलों मे,
अब तीर नदी न कोई मिल पाता,
नदी के इस पार गीत कोई न गाता।

इक मैं हूँ खड़ा इस तट पर एकांत,
साथ देती मेरी नदी जल चुप श्रांत,
गीत गाती ये मंद अलसायी हवाएं,
साथ देती नदी के उस पार ईक साया।

जीवन आरोह है अब होने को पूर्ण,
अवरोह की बेला भी दिखती समीप,
मन चाहे अवरोह भी हो उतना ही मुखर,
मधुर हो इसकी तान मादक हों इसके स्वर।

पर यह देख मन मायूस हो जाता,
नदी के इस पार गीत कोई न गाता,
न इस तट, न उस तट, मिल कोई न पाता,
काश! नदी के इस पार साथ कोई तो गाता।

जीवन अवरोह मुखर हो जाता.......!
नव गीत कोई यह भी गा पाता........काश!