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Thursday, 20 January 2022

एकाकी बरगद

अब, कम ही खिल पाते हैं बरगद!
कहां दिख पाते हैं, बरगद!

जटाओं वाले, बूढ़े, विशालकाय, बरगद,
निःस्वार्थ, भावी राह करे प्रशस्त,
आत्मविश्वास, स्वाभिमान के द्योतक,
प्रगति के, ध्वज-वाहक,
नैतिक मूल्यों के संवाहक, ये बरगद!

अब, कम ही निखर पाते हैं बरगद!

हो जाते खुश, ले अपनों की खैर-खबर,
आशा में, उनकी ही, होते जर्जर,
बैठे राह किनारे, सदियों, बांह पसारे,
बे-सहारे, अतीत किनारे,
संबल, आशाओं के, बन हारे बरगद!

अब, कम ही संवर पाते हैं बरगद!

देखे बसन्त कई, गुजारे कितने पतझड़,
झेले झकझोरे, हवाओं के अंधर,
विषम हर मौसम, खुद पे रह निर्भर,
सहेजे, इक स्वाभिमान,
गगन तले, कितने एकाकी, बरगद!

अब, कम ही खिल पाते हैं बरगद!
कहां दिख पाते हैं, बरगद!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 19 October 2021

धागे

मढ़ते-मढ़ते, रिश्तों के सारे नाज़ुक धागे,
बुनते-बुनते, भावुक से कितने पल,
आ पहुंचे, मंजिल तक हम।

कितने अंजाने थे तुम, और बेगाने से हम,
इक सिमटे से, पल थे तुम, 
और कितने बिखरे से, बादल थे हम,
यूं, चुनते-चुनते, तुझ संग खुद को,
आ पहुंचे, साहिल तक हम।

मढ़ते-मढ़ते, रिश्तों के सारे नाज़ुक धागे...

यूं, आसान न था, बिखरे ये टुकड़े चुनना,
यूं धागों संग, चिथड़े सिलना,
भरमाए से, इस गगन के तारे थे हम,
यूं, चलते-चलते, अंधेरे से राहों में,
आ पहुंचे, मंजिल तक हम।

मढ़ते-मढ़ते, रिश्तों के सारे नाज़ुक धागे...

हौले से, तुम आ बैठे, हृदय के आंगन में,
यूं बरसे, घन जैसे सावन में,
प्यासे, पतझड़ के, सूखे उपवन हम,
यूं, रीतते-रीतते, भीगी बारिश में,
आ पहुंचे, साहिल तक हम।

मढ़ते-मढ़ते, रिश्तों के सारे नाज़ुक धागे...

अब जाने, कितने जन्मों का, ये बंधन है,
किन धागों का, गठबंधन है,
बैठे हैं, तेरे इन आँचल के, साए हम,
यूं, सुनते-सुनते, जीवन के किस्से,
आ पहुंचे, मंजिल तक हम।

मढ़ते-मढ़ते, रिश्तों के सारे नाज़ुक धागे,
बुनते-बुनते, भावुक से कितने पल,
आ पहुंचे, मंजिल तक हम।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 29 August 2021

मन पंछी

ये मन पंछी, उन्हें ही याद करे,
इस गगन से, 
उन्हें, कैसे आजाद करे!

झूले कैसे, गगन का ये झूला,
भरे, पेंग कैसे, 
पड़ा, तन्हा अकेला,
तन्हाईयाँ, वो आबाद करे!

ये मन पंछी, उन्हें ही याद करे!

बरबस, खींच लाए, वो साए,
देखे, भरमाए,
करे, कोरी कल्पना,
भरे रंग, वो मन शाद करे!

ये मन पंछी, उन्हें ही याद करे!

भटके ना, कहीं डाली-डाली,
भूले ना, राह,
चाहतों का, गाँव,
वियावानों में, आबाद करे!

ये मन पंछी, उन्हें ही याद करे!

रंग सारे, यूँ बिखरे गगन पर,
रंगी, ये नजारे,
भाए ना, रंग कोई,
ना ही, दूजा फरियाद करे!

ये मन पंछी, उन्हें ही याद करे,
इस गगन से, 
उन्हें, कैसे आजाद करे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 29 June 2021

फिर याद आए

फिर याद आए, वो सांझ के साए....

था कोई साया, जो चुपके से पास आया,
थी वही, कदमों की हल्की सी आहट,
मगन हो, झूमते पत्तियों की सरसराहट,
वो दूर, समेटे आँचल में नूर वो ही,
रुपहला गगन, मुझको रिझाए....

फिर याद आए, वो सांझ के साए....

हुआ एहसास, कि तुझसे मुक्त मैं न था,
था रिक्त जरा, मगर था यादों से भरा,
बेरहम तीर वक्त के, हो चले थे बेअसर,
ढ़ल चला था, इक, तेरे ही रंग मैं,
बेसबर, सांझ ने ही गीत गाए....

फिर याद आए, वो सांझ के साए....

ढ़लते गगन संग, तुम यूँ, ढ़लते हो कहाँ,
छोड़ जाते हो, कई यादों के कारवाँ,
टाँक कर गगन पर, अनगिनत से दीये,
झांकते हो, आसमां से जमीं पर,
वो ही रौशनी, मुझको जगाए....

फिर याद आए, वो सांझ के साए....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 13 April 2021

गैर लगे मन

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!

गैर लगे, अपना ही मन,
हारे, हर क्षण,
बिसारे, राह निहारे,
करे क्या!
देखे, रुक-रुक वो!

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!

तन्हा पल, काटे न कटे,
जागे, नैन थके,
भटके, रैन गुजारे,
करे क्या!
ताके, तेरा पथ वो!

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!

इक बेचारा, तन्हा तारा,
गगन से, हारा,
पराया, जग सारा,
करे क्या! 
जागे, गुम-सुम वो!

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!

संग-संग, तुम होते गर,
तन्हा ये अंबर,
रचा लेते, स्वयंवर,
करे क्या!
हारे, खुद से वो!

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!


- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 9 April 2021

उभर आओ ना

उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत,
सिमटोगे, लकीरों में, कब तक!

झंकृत, हो जाएं कोई पल,
तो इक गीत सुन लूँ, वो पल ही चुन लूँ,
मैं, अनुरागी, इक वीतरागी,
बिखरुं, मैं कब तक!

उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत..

आड़ी तिरछी, सब लकीरें,
यूँ ही उलझे पड़े, कब से तुझको ही घेरे,
निकल आओ, सिलवटों से,
यूँ देखूँ, मैं कब तक! 
   
उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत..

उतरे हो, यूँ सांझ बन कर,
पिघलने लगे हो, सहज चाँद बन कर,
यूँ टंके हो, मन की गगन पर,
निहारूँ, मैं कब तक!

उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत..

खोने लगे हैं, जज्बात सारे,
भला कब तक रहें, ख्वाबों के सहारे,
नैन सूना, ये सूना सा पनघट,
पुकारूँ, मैं कब तक!

उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत,
सिमटोगे, लकीरों में, कब तक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 24 March 2021

स्वप्न कोई खास

उलझे ये नैन, बुनते रहे, स्वप्न कोई खास!

समेट कर, सारी व्यग्रता,
भर कर, कोई चुभन,
बह चली थी, शोख चंचल सी, इक पवन,
सिमटती वो सांझ,
डूबता, गगन,
कैसे न होता, एक अजीब सा एहसास,
अधीर सा करता, एक आभास!

उलझे ये नैन, बुनते रहे, स्वप्न कोई खास!

दीप तले, सिमटती रात,
वो, अधूरी सी बात,
कोई जज्बात लिए, वो सांझ की दुल्हन,
डूबता सा आकाश,
खींचता मन,
दिलाता रहा, उन आहटों का पूर्वाभास,
अधीर सा करता, एक आभास!

उलझे ये नैन, बुनते रहे, स्वप्न कोई खास!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 3 January 2021

दो ही दिन

अभी तो, दो ही दिन, कट पाया जीवन!

पा लेने को, है उन्मुक्त गगन,
है छू लेने को, उम्मीदों के कितने घन!
खुला-खुला, उद्दीप्त ये आंगन,
बुलाता, ये सीमा-विहीन क्षितिज,
भर आलिंगन!

अभी तो, दो ही दिन, कट पाया जीवन!

जितना सौम्य, उतना सम्यक,
रहस्यमयी उतनी ही, यह दृष्टि-फलक!
धारे रूप कई,  बदले रंग कई!
हर रूप अनोखा, हर रंग सुरमई,
और मनभावन!

अभी तो, दो ही दिन, कट पाया जीवन

पर अंजाना आने वाला क्षण!
ना जाने कौन सा पल, है कितना भारी!
किस पल, बढ़ जाए लाचारी!
ना जाने, ले आए, कौन सा पल,
अन्तिम क्षण!

अभी तो, दो ही दिन, कट पाया जीवन!

समेट लूँ, जो शेष है जीवन!
भर लूँ दामन में, कर लूँ इक आलिंगन!
कंपित हो, सुसुप्त धड़कन!
जागृत रहे, किसी की वेदना में,
ये हृदयांगण!

अभी तो, दो ही दिन, कट पाया जीवन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 24 December 2020

झील सा, अधबहा

गुफ्तगू, बहुत हुई गैरों से,
पर गाँठ, गिरह की, खुल न पाई!
है अन्दर, कितना अनकहा!
झील सा, अनबहा!
अब, बहना है,
इक दीवाने से, कहना है!

मिल जाए, तो अपना लूँ, 
माना, इक फलक है, बिखरा सा,
खुद में, कितना उलझा सा,
बंधा या, अधखुला!
कितना, टूटा है,
उन टुकड़ों को, चुनना है!

दो होते, तो होती गुफ्तगू,
चुप-चुप, करे क्या, मन एकाकी!
गगन करे भी क्या, तन्हा सा!
भींगा या, अधभींगा!
शायद, तरसा है!
उसे तन्हाई में, पलना है!

पहले, सहेज लूँ ये बहाव,
समेट लूँ, मन के सारे बहते भाव!
रोक लूँ, ले चलूँ किनारों पर!
बहने दूँ, ये अधबहा!
भँवर विहीन सा,
फिर बहाव में, बहना है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 11 December 2020

सूना गगन

झाँक लेना, सूना सा, गगन भी यदा-कदा!
इक छवि, तेरी ही दिखलाएगा सदा!

देखती हैं, तुझको ही ये चारो दिशाएँ,
झुक-झुक कर, क्षितिज पर, तुझको बुलाएं,
तारे हैं कई, पर विरान है गगन, 
तुम बिन सर्वदा!

झाँक लेना, सूना सा, गगन भी यदा-कदा!
इक छवि, तेरी ही दिखलाएगा सदा!

कौन जाने, किस घड़ी, छा जाए घटा,
चमके बिजलियाँ, हो न, सुबह सी ये छटा,
घिर न जाए, तूफानों में, गगन,
तुम बिन सर्वदा!

झाँक लेना, सूना सा, गगन भी यदा-कदा!
इक छवि, तेरी ही दिखलाएगा सदा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 4 November 2020

पूछे कोई

मन की गगन पे, वो उतरा था कैसे!

निशा थी, गुम हर दिशा थी,
कहीं बादलों में, छुपी कहकशाँ थी,
न कोई कारवाँ, न कोई निशां,
कोई स्याह रातों से पूछे,
वो गुजरा था कैसे!

मन की गगन पे, वो उतरा था कैसे!

घुलती हुई, पिघलती फिजां,
फिसलन लिए, भीगी थी राहें वहाँ,
आसां न था, खुद को बचाना,
कोई सर्द आहों से पूछे,
वो कहरा था कैसे!

मन की गगन पे, वो उतरा था कैसे!

हलचल सी, रहती प्रतिपल,
वो बेचैन, कहीं ठहरता न इक पल,
ना ठौर कोई, ना ही ठिकाना,
कोई उन ख्यालों से पूछे,
वो ठहरा था कैसे!

मन की गगन पे, वो उतरा था कैसे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 7 July 2020

फासले

निष्क्रिय से हैैं, आकर्षण,
विलक्षणताओं से भरे वो क्षण,
गुम हैं कहीं!

सहज हों कैसे, विकर्षण के ये क्षण!
ये दिल, मानता नहीं,
कि, हो चले हैं, वो अजनबी,
वही है, दूरियाँ,
बस, प्रभावी से हैं फासले!

यूँ ही, हो चले, तमाम वादे खोखले!
गुजरना था, किधर!
पर जाने किधर, हम थे चले,
वही है, रास्ते,
पर, मंजिलों से है फासले!

हर सांझ, बहक उठते थे, जो कदम,
बहके हैं, आज भी,
टूटे हैं प्यालों संग, साज भी,
वहीं है, सितारे,
बस, गगन से हैं फासले!

मध्य सितारों के, छुपे अरमान सारे,
उन बिन, बे-सहारे,
चल, अरमान सारे पाल लें,
सब तो हैं वहीं,
यूँ सताने लगे हैं फासले!

निष्क्रिय से हैैं, आकर्षण,
विलक्षणताओं से भरे वो क्षण,
गुम हैं कहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 8 May 2020

उड़ चले विहग

उड़ चले विहग, क्षितिज पे कहीं दूर!

उन्हीं, असीम सी, रिक्तताओं में,
हैं कुछ, ढ़ूंढ़ने को मजबूर,
मुट्ठी भर आसमां, कहीं गगन पे दूर,
या, अपना, कोई आकाश,
लिए, अंतहीन सा, इक तलाश!

उड़ चले विहग, क्षितिज पे कहीं दूर!

गुम हैं कहीं, पंछियों के कलरव,
कहीं दूर जैसे, उन से हैं रव,
शून्य में घुला, वो गगन का किनारा,
जैसे, संगीत ही हो बेसहारा,
लिए, कलरव में, सुर की तलाश!

उड़ चले विहग, क्षितिज पे कहीं दूर!

अपनी समझ, अपनी विवशता,
मन में दबाए, एक चिन्ता,
घिर कर, आपदाओं में, बिखरे सदा,
फिर से, न लौटने को विवश,
लिए, दुख में, इक सुख की आश!

उड़ चले विहग, क्षितिज पे कहीं दूर!

आसमाँ की, उन्हीं, गहराईयों में,
ढ़ूंढ़ने को, फिर से, चन्द्रमा,
अंधियारे क्षणों में, उजालों के क्षण,
हताशा में, आशा का आंगन,
लिए, अनबुझ सी, वो ही प्यास!

उड़ चले विहग, क्षितिज पे कहीं दूर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 10 April 2020

अधिकार

इक अग्नकुंड के किनारे,
सौंप डाले थे,
तुम्हें हमने, अपने अधिकार सारे!

अब अधिकार है, सिर्फ तुझको!
आँखें फेर लो, या, अंक-पाश में घेर लो,
चलो, गगन में, संग दूर तक,
या, मध्य राह में, कहीं, मुँह मोड़ लो,
जल चुके थे, धू-धू हम तो,
उसी अग्नकुंड में!
जल चुकी थी, मेरी कामनाएँ,
बाकि, रही थी, एक इक्षा!
तुम करोगे, एक दिन,
मेरी समीक्षा!

इक अग्नकुंड के किनारे,
सौंप डाले थे,
तुम्हें हमने, अपने अधिकार सारे!

अधिकार है, पूछने का तुमको!
कितना जला मैं? कितना संग चला मैं?
उन, सात फेरों, में घिरा मैं!
या, मध्य राह में, वचन फिर सात लो,
सिमटते रहे, थे हम तो,
उसी प्रस्तावना में!
बहकती रही थी, मेरी भावनाएँ,
शेष, बची थी, एक इक्षा!
करोगे, एक दिन, तुम,
मेरी समीक्षा!

इक अग्नकुंड के किनारे,
सौंप डाले थे,
तुम्हें हमने, अपने अधिकार सारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 9 June 2019

डूबता सूरज

उतर कर क्यूँ गगन से,
डूब जाता है सूरज......

आकर जमीं पर,
क्षितिज को,
क्यूँ चूम जाता है सूरज!
लाल से हैं भाल,
वो गगन है या है ताल,
है आँखों में हया, या नींद में ऊँघ जाता है सूरज!

उतर कर क्यूँ गगन से,
डूब जाता है सूरज......

या है ये प्रीत की ही,
रंग-रंगीली सी,
रीत कोई!
या सज कर,
उस सुनहरे मंच पर,
क्षितिज को,
वो सुनाता है गीत कोई!
क्या मिलन की चाह में, रोज ढ़ल जाता है सूरज!

उतर कर क्यूँ गगन से,
डूब जाता है सूरज......

या है मिलन की शाम ये,
या है विरह का,
टूटा जाम ये!
बिखरे हैं,
जो उस फलक पर,
छलकते हैं,
जो पैमानों में उतर कर!
या दीवानों सा, फलक पर बिखर जाता है सूरज!

उतर कर क्यूँ गगन से,
डूब जाता है सूरज......

आकर जमीं पर,
क्षितिज को,
क्यूँ चूम जाता है सूरज!
लाल से हैं भाल,
वो गगन है या है ताल,
है आँखों में हया, या नींद में ऊँघ जाता है सूरज!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday, 9 January 2019

छद्मविभोर

हर सांझ, मैं किरणों के तट पर,
लिख लेता हूँ, थोड़ा-थोड़ा सा तुझको.....

कहीं तुम्हारे होने का,
छद्म विभोर कराता एहसास,
और ये दूरी का,
विशाल-काय आकाश,
सीमा-विहीन सी शून्यता,
गहराती सी ये सांझ,
रिक्तता का देती है आभास,
गगन पर दूर,
कहीं मुस्काता है वो चाँद,
छद्मविभोर हो उठता है ये मन...

हर सांझ, सीमा-हीन इस तट पर,
लिख लेता हूँ, मैं थोड़ा-थोड़ा तुझको.....

पंछी से लेता हूँ कलरव
किरणों से ले लेता हूँ तुलिकाएँ,
छंद कोई गढ़ लेता हूँ,
तस्वीर अधूरी सी,
उभार लाती है ये सांझ,
सजग हो उठती है कल्पना,
दूर क्षितिज पर,
नीलाभ सा होता आकाश,
संग मुस्काता वो चाँद,
छद्मविभोर हो उठता है ये मन...

हर सांझ, नील गगन के तट पर,
लिख लेता हूँ, मैं थोड़ा-थोड़ा तुझको.....

Thursday, 25 October 2018

श्वेत-श्याम

होने लगी है, श्वेत-श्याम अब ये शाम,
लगने लगी है, इक अजनबी सी अब ये शाम....

इक गगन था पास मेरे.....
विस्तार लिए, भुजाओं का हार लिए,
लोहित शाम, हर बार लिए,
रंगो की फुहार, चंचल सी सदाएं,
वो सरसराहट, उनके आने की आहट,
पहचानी सी कोई परछांईं,
थी हर एक शाम, इक पुकार लिए.....

हो चला अब, बेरंग सा वो ही गगन,
होने लगी अब, श्वेत-श्याम हर एक शाम....

इक गगन अब पास मेरे.....
निस्तेज सा, संकुचित विस्तार लिए,
श्वेत श्याम सा उपहार लिए,
धुंध में घिरी, संकुचित सी दिशाएं,
न कोई दस्तक, न आने की कोई आहट,
अंजानी सी कई परछांई,
बेरंग सी ये शाम, उनकी पुकार लिए.....

मलीन रंग  लिए, तंज कसती ये शाम,
लगने लगी है, इक अजनबी सी अब ये शाम....

Saturday, 4 August 2018

वो तारे

गगन के पाश में,
गहराते रात के अंक-पाश में,
अंजाने से किस प्यास में,
एकाकी हैं वो तारे!

गहरे आकाश में,
उन चमकीले तारों के पास में,
शायद मेरी ही आस में,
रहते हैं वो तारे!

अंधेरों से मिल के,
सुबह के उजियारों से बच के,
या शायद एकांत रह के,
खिलते हैं वो तारे!

टिम टिम वो जले,
तिल-तिल फिर जल-जल मरे,
हर पल यूं ही टिमटिमाते,
जलते हैं वो तारे!

क्यूं तन्हा है जीवन?
वृहद आकाश क्यूं है निर्जन?
अनुत्तरित से कई प्रश्न,
करते हैं वो तारे!

ना ही कोई सखा,
ना ही फल जीवन का चखा,
इसी तड़प में शायद,
मरते हैं वो तारे!

जलकर भुक-भुक,
ज्यूं, कुछ कहता हो रुक-रुक,
शायद मेरी ही चाह में,
उगते हैं वो तारे!

Sunday, 8 July 2018

बिसारिए न मन से

इक याद हूं, बिसारिए न मन से,
मुझको संभालिए जतन से,
फिर लौट आऊंगा मैं उस गगन से,
कभी पुकारिए न मन से!

जब खुश्बू सी कोई आए चमन से,
हो जाए बेचैन सी ये सांसें,
या ठंढी सी बारिश गिरने लगे जब गगन से,
बूंदों में भीग जाएं ये मेरी यादें,
कहने को कुछ, दिन-रैन मन ये तरसे,
मैं पास हूं, पुकारिए न मन से!

इक याद हूं, बिसारिए न मन से.........

फीका लगे जब तन पे श्रृंगार सारे,
सूना सा लगे जब ये नजारे,
खुद से ही खुद को, जो कभी तुम हो हारे,
वश में न हो जब मन तुम्हारे,
न आए कोई आवाज इन धड़कनो से,
मैं साथ हूं, पुकारिए न मन से!

इक याद हूं, बिसारिए न मन से,
मुझको संभालिए जतन से,
फिर लौट आऊंगा मैं उस गगन से,
न हूं दूर, पुकारिए न मन से!

Saturday, 27 May 2017

कोरी सी कल्पना

शायद महज कोरी सी कल्पना या है ये इक दिवास्वप्न!

कविताओं में मैने उसको हरपल विस्तार दिया,
मन की भावों से इक रूप साकार किया,
हृदय की तारों से मैने उसको स्वीकार किया,
अभिलाषा इक अपूर्ण सा मैने अंगीकार किया...

शायद महज कोरी सी कल्पना या है ये इक दिवास्वप्न!

कभी यूँ ही मुलुर मुलुर तकते मुझको वो दो नैन,
वो प्रखर से शब्द मुझको करते हैं बेचैन,
फिर मूक वधिर बन कभी लूटते मन का चैन,
व्यथा में बीतते ये पल, न कटते ये दिन न ये रैन.....

शायद महज कोरी सी कल्पना या है ये इक दिवास्वप्न!

कभी निर्झरणी सी बह गई वो नैनों से अश्रुधार बन,
स्तब्ध मौन रही कभी नील गगन बन,
या रिमझिम बारिश सी भिगो गई तन्हा ये मन,
खलिश है ये कोई, या है ये कई जन्मों का बंधन.....

शायद महज कोरी सी कल्पना या है ये इक दिवास्वप्न!