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Friday, 10 December 2021

रूठ चला साया

छूट चला, तन से, तन का साया,
उस ओर कहीं, रूठ चला!

रही बैठी, संग-संग ठहरी, भर दोपहरी, 
कुछ वो चुप, कुछ हम गुमसुम,
क्षण सारा, बीत चला,
असमंजस में, ये सांझ ढ़ला!

छूट चला, तन से, तन का साया,
उस ओर कहीं, रूठ चला!

रिक्त ढ़ले, इक दुविधा में सारे ही क्षण,
हरजाई सी, अपनी ही परछाईं,
मेरे ही, काम न आई,
एकाकी, ये दिन रात ढ़ला!

छूट चला, तन से, तन का साया,
उस ओर कहीं, रूठ चला!

शब्द-विहीन ये पल, अर्थ-हीन कितने,
वाणी बिन तरसे, शब्द घुमरते,
रह गए होंठ, सिले से,
ये तन, सायों से ऊब चला!

छूट चला, तन से, तन का साया,
उस ओर कहीं, रूठ चला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 24 February 2019

शामिल

यूँ तो इक, वहम ने ही बनाया ये फसाना!
यूँ भी, है न कुछ चाहत में हासिल!
यूँ ही मुस्कुराना, या यूँ खुद ही रूठ जाना!
यूँ न था, मेरी आदत में शामिल!

यूँ तो न था, किसी पर ऐतबार,
यूँ ही, हुआ था एक बार,
यूँ ही, करता रहा मैं बार-बार,
यूँ ही चला, छोड़ कर वो किस्से हजार!

यूँ न था,आसाँ मेरा वादों से मुकर जाना!
यूँ न था, ये मेरी फितरत में शामिल!

यूँ तो था, ये हँसी खेल उनका,
यूँ था, चाह में मैं ही रुका,
यूँ ही, मिला बस एक धोखा,
यूँ ही छेड़कर, तार दिल के वो चला!

यूँ तो इक, वहम ने ही बनाया ये फसाना!
यूँ भी, है न कुछ चाहत में हासिल!

यूँ, गुजरता न मैं उस राह पर,
यूँ, रुका मैं इक आह पर,
यूँ ही, मासूम सी निगाह पर,
यूँ तो रहा, मेरी हाल से वो बेखबर!

यूँ तिल-मिलाना, बेसबर हो लौट जाना!
यूँ ही था, इस इबादत में शामिल!

यूँ तो, कागजों सी है जिन्दगी,
यूँ ये, रद्दी हुई और जली,
यूँ ही, या आँसूओं से ये गली,
यूँ ही, है भीगी, बुझी सी ये जिन्दगी!

यूँ ही मुस्कुराना, या यूँ खुद ही रूठ जाना!
यूँ न था, मेरी आदत में शामिल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday, 12 March 2016

तुम रूठी रहो मैं मनाता रहूँ

तुम एक बार जो रूठो, तो मैं दस बार मनाऊँ,
आपकी एक हसीं के लिए मैं तो जान लुटाऊँ,

रूठकर आपका जाना बड़ी प्यारी सी अदा है,
मानकर लौट भी जाना, उफ ये क्या माजरा है,

इन अदाओं में आपका प्यार छलक जाता है,
छलके इन्ही लम्हों में मेरा वक्त गुजर जाता है,

तरकीब नई फिर आपको सताने की ढ़ूंढ़ता हूँ,
रूठ जाने की नई ताक दिल में लिए फिरता हूँ,

मनभ्रमर रस पी लेता रूठे प्रीतम को मनाने में,
यूँ ही गुजर जाती ये जिन्दगानी रूठने मनाने में।

Tuesday, 23 February 2016

रूठी कविता

लगता है हाथ पकड़ रखा हो किसी ने जैसे,
ताले लगा दिए गए हों जड़ विवेक पर जैसे,
धुंधली सी शाम कुम्हला रही है जैसे,
तन्हाई मे हाथों से दामन छूटा हो जैसे,
कविता मेरी आज रूठ गई है मुझसे जैसे।

वक्त की पावंदियों मे घुट गया हो दम जैसे,
पास रखी हो कलम पर सूखी हो स्याही जैसे,
कुम्हलाई शाम तिलमिला रही हो जैसे,
पहलू मे आकर वो रो पड़ी हो जैसे,
कविता मेरी आज रूठ गई है मुझसे जैसे।