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Tuesday, 6 July 2021

ऊहापोह

स्मृति के, इस गहराते पटल पर,
अंकित, हो चले वो भी!

यूँ, आसान नहीं, इन्हें सहेजना,
मनचाहे रंगों को, अनचाहे रंगों संग सीना,
यूँ, अन्तःद्वन्दों से, घिर कर,
स्मृतियों संग, जीना!

पर, वक्त के, धुँधलाते मंज़र पर,
अमिट, हो चले वो भी!

यूँ, जीवन के इस ऊहापोह में,
रिक्त रहे, कितनी ही, स्मृतियों के दामन,
बिखरी, कितनी ही स्मृतियाँ,
सँवर जाते वो काश!

जीवन के, इस गहराते पथ पर,
संचित, हो चले वो भी!

यूँ कल, विखंडित होंगे, ये पल,
फिर भी, स्मृतियाँ, खटखटाएंगी साँकल,
देंगी, जीवन्त सा, एहसास,
अनुभूति भरे, पल!

सांध्य प्रहर, गहराते क्षितिज पर,
शामिल, हो चले वो भी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 24 February 2019

शामिल

यूँ तो इक, वहम ने ही बनाया ये फसाना!
यूँ भी, है न कुछ चाहत में हासिल!
यूँ ही मुस्कुराना, या यूँ खुद ही रूठ जाना!
यूँ न था, मेरी आदत में शामिल!

यूँ तो न था, किसी पर ऐतबार,
यूँ ही, हुआ था एक बार,
यूँ ही, करता रहा मैं बार-बार,
यूँ ही चला, छोड़ कर वो किस्से हजार!

यूँ न था,आसाँ मेरा वादों से मुकर जाना!
यूँ न था, ये मेरी फितरत में शामिल!

यूँ तो था, ये हँसी खेल उनका,
यूँ था, चाह में मैं ही रुका,
यूँ ही, मिला बस एक धोखा,
यूँ ही छेड़कर, तार दिल के वो चला!

यूँ तो इक, वहम ने ही बनाया ये फसाना!
यूँ भी, है न कुछ चाहत में हासिल!

यूँ, गुजरता न मैं उस राह पर,
यूँ, रुका मैं इक आह पर,
यूँ ही, मासूम सी निगाह पर,
यूँ तो रहा, मेरी हाल से वो बेखबर!

यूँ तिल-मिलाना, बेसबर हो लौट जाना!
यूँ ही था, इस इबादत में शामिल!

यूँ तो, कागजों सी है जिन्दगी,
यूँ ये, रद्दी हुई और जली,
यूँ ही, या आँसूओं से ये गली,
यूँ ही, है भीगी, बुझी सी ये जिन्दगी!

यूँ ही मुस्कुराना, या यूँ खुद ही रूठ जाना!
यूँ न था, मेरी आदत में शामिल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा