बरबस, लौट आते हैं परदेशी,
सौंधी सी खुश्बू, मिट्टी की अपनी पाकर!
सौंधी सी ये खुश्बू, है अपनेपन की,
अटूट संबंधो और बंधन की,
अब भस्म हो चुके जो, उस अस्थि की,
बिछड़े से, उस आलिंगन की,
खींच लाते हैं वो ही, फिर चौखट पर!
सौंधी सी ये खुशबू, है इस मिट्टी की,
धरोहर, है जिनमें उन पुरखों की,
निमंत्रण, उनको दे जाती हैं जो अक्सर,
बरबस, लौट आते हैं परदेशी,
सौंधी सी वो ही खुश्बू, मिट्टी की पाकर!
सौंधी सी ये खुश्बू, है संस्कारों की,
संबंधों के, उन शिष्टाचारों की,
छूट चुके हैं जो अब, उन गलियारों की,
बचपन के, नन्हें से यारों की,
पुकारते हैं जो, फिर रातों में आकर!
सौंधी सी खुश्बू, है उन उमंगों की,
तीन रंगों में रंगे, तिरंगों की,
स्वतंत्रता व स्वाभिमान, के जंगों की,
बासंती से, खिलते रंगों की,
लोहित वो मिट्टी, बुलाती है आकर!
बरबस, लौट आते हैं परदेशी,
सौंधी सी खुश्बू, मिट्टी की अपनी पाकर!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
सौंधी सी खुश्बू, मिट्टी की अपनी पाकर!
सौंधी सी ये खुश्बू, है अपनेपन की,
अटूट संबंधो और बंधन की,
अब भस्म हो चुके जो, उस अस्थि की,
बिछड़े से, उस आलिंगन की,
खींच लाते हैं वो ही, फिर चौखट पर!
सौंधी सी ये खुशबू, है इस मिट्टी की,
धरोहर, है जिनमें उन पुरखों की,
निमंत्रण, उनको दे जाती हैं जो अक्सर,
बरबस, लौट आते हैं परदेशी,
सौंधी सी वो ही खुश्बू, मिट्टी की पाकर!
सौंधी सी ये खुश्बू, है संस्कारों की,
संबंधों के, उन शिष्टाचारों की,
छूट चुके हैं जो अब, उन गलियारों की,
बचपन के, नन्हें से यारों की,
पुकारते हैं जो, फिर रातों में आकर!
सौंधी सी खुश्बू, है उन उमंगों की,
तीन रंगों में रंगे, तिरंगों की,
स्वतंत्रता व स्वाभिमान, के जंगों की,
बासंती से, खिलते रंगों की,
लोहित वो मिट्टी, बुलाती है आकर!
बरबस, लौट आते हैं परदेशी,
सौंधी सी खुश्बू, मिट्टी की अपनी पाकर!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा