इक अग्नकुंड के किनारे,
सौंप डाले थे,
तुम्हें हमने, अपने अधिकार सारे!
अब अधिकार है, सिर्फ तुझको!
आँखें फेर लो, या, अंक-पाश में घेर लो,
चलो, गगन में, संग दूर तक,
या, मध्य राह में, कहीं, मुँह मोड़ लो,
जल चुके थे, धू-धू हम तो,
उसी अग्नकुंड में!
जल चुकी थी, मेरी कामनाएँ,
बाकि, रही थी, एक इक्षा!
तुम करोगे, एक दिन,
मेरी समीक्षा!
इक अग्नकुंड के किनारे,
सौंप डाले थे,
तुम्हें हमने, अपने अधिकार सारे!
अधिकार है, पूछने का तुमको!
कितना जला मैं? कितना संग चला मैं?
उन, सात फेरों, में घिरा मैं!
या, मध्य राह में, वचन फिर सात लो,
सिमटते रहे, थे हम तो,
उसी प्रस्तावना में!
बहकती रही थी, मेरी भावनाएँ,
शेष, बची थी, एक इक्षा!
करोगे, एक दिन, तुम,
मेरी समीक्षा!
इक अग्नकुंड के किनारे,
सौंप डाले थे,
तुम्हें हमने, अपने अधिकार सारे!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
सौंप डाले थे,
तुम्हें हमने, अपने अधिकार सारे!
अब अधिकार है, सिर्फ तुझको!
आँखें फेर लो, या, अंक-पाश में घेर लो,
चलो, गगन में, संग दूर तक,
या, मध्य राह में, कहीं, मुँह मोड़ लो,
जल चुके थे, धू-धू हम तो,
उसी अग्नकुंड में!
जल चुकी थी, मेरी कामनाएँ,
बाकि, रही थी, एक इक्षा!
तुम करोगे, एक दिन,
मेरी समीक्षा!
इक अग्नकुंड के किनारे,
सौंप डाले थे,
तुम्हें हमने, अपने अधिकार सारे!
अधिकार है, पूछने का तुमको!
कितना जला मैं? कितना संग चला मैं?
उन, सात फेरों, में घिरा मैं!
या, मध्य राह में, वचन फिर सात लो,
सिमटते रहे, थे हम तो,
उसी प्रस्तावना में!
बहकती रही थी, मेरी भावनाएँ,
शेष, बची थी, एक इक्षा!
करोगे, एक दिन, तुम,
मेरी समीक्षा!
इक अग्नकुंड के किनारे,
सौंप डाले थे,
तुम्हें हमने, अपने अधिकार सारे!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
बढ़िया अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय मयंक जी । इस रचना का मान बढाने हेतु आभार।
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 10 एप्रिल 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय दिग्विजय जी । इस रचना का मान बढाने हेतु आभार।
Deleteसमीक्षा में प्यार ही तो मिलेगा जीवनसाथी को।
ReplyDeleteहर रंगत में वो खुद को ही तो पायेगा।
बहुत ही लाजवाब कविता है।
नई रचना - एक भी दुकां नहीं थोड़े से कर्जे के लिए
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय रोहितास जी । इस रचना का मान बढाने हेतु आभार।
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteसादर आभार ओंकार जी।
Deleteबहुत सुंदर रचना।
ReplyDeleteसादर आभार नीतीश जी
Deleteअधिकार है, पूछने का तुमको!
ReplyDeleteकितना जला मैं? कितना संग चला मैं?
उन, सात फेरों, में घिरा मैं!
या, मध्य राह में, वचन फिर सात लो,
सिमटते रहे, थे हम तो,
उसी प्रस्तावना में!
बहुत ही खूबसूरती से मन के भाव जीवन साथी को समर्पित किये हैं आदरणीय पुरुषोत्तम जी | कातर भावों में मन की वेदना मुखुरित हो रही है | आखिर शिकायत का अधिकार भी तो सबसे ज्यादा उन्ही से है |सराहनीय सृजन जो मर्मस्पर्शी है | सादर --
आदरणीया रेणु जी, आपकी सारगर्भित व विश्लेषणात्मक प्रतिक्रिया हेतु हृदयतल से आभार। बहुत-बहुत धन्यवाद ।
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