पिघलते सांझ सा, बहता किनारा,
कब, हो सका हमारा!
पर, गुजारे हैं, पल, सारे यहीं,
रख चले, बुनकर, सपनों के सारे, धागे यहीं,
पर, देखती कहाँ, पलट कर?
भागते, वो धारे,
बहा ले जाती, इक उम्र सारा!
पिघलते सांझ सा, बहता किनारा,
कब, हो सका हमारा!
पलटकर, लौट आती है रोज,
बरबस, भर एक आलिंगन, करती है बेवश,
पिघलता, वो रुपहला पहर,
डूबते, वो सहारे,
जैसे, कर जाते हैं.. बेसहारा!
पिघलते सांझ सा, बहता किनारा,
कब, हो सका हमारा!
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