मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!
हूँ सफर में, साँसों के शहर में!
इक, पराए से घर में!
पराई साँस है, जिन्दगी के दो-पहर में!
चल रहा हूँ, जैसे बे-सहारा,
दो साँसों का मारा,
पर भला, कब कहा, मैंने इसे!
तू साथ चल!
मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!
बुलाऊँ क्यूँ, उसको सफर में!
अंजाने, इस डगर में!
पराया देह है, क्यूँ परूँ मैं इस नेह में!
बंध दो पल का, ये हमारा,
दो पल का नजारा,
टोक कर, कब कहा, मैने उसे,
तू साथ चल!
मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!
चले वो, अपनी मर्जी के तले!
इक, अपनी ही धुन में!
अकारण प्रेम, पनपाता है वो मन में!
हूँ इस सफर का, मैं बंजारा,
दे रहा ये मौत पहरा,
इस प्रवाह को, मैने कब कहा,
तू साथ चल!
मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
हूँ सफर में, साँसों के शहर में!
इक, पराए से घर में!
पराई साँस है, जिन्दगी के दो-पहर में!
चल रहा हूँ, जैसे बे-सहारा,
दो साँसों का मारा,
पर भला, कब कहा, मैंने इसे!
तू साथ चल!
मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!
बुलाऊँ क्यूँ, उसको सफर में!
अंजाने, इस डगर में!
पराया देह है, क्यूँ परूँ मैं इस नेह में!
बंध दो पल का, ये हमारा,
दो पल का नजारा,
टोक कर, कब कहा, मैने उसे,
तू साथ चल!
मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!
चले वो, अपनी मर्जी के तले!
इक, अपनी ही धुन में!
अकारण प्रेम, पनपाता है वो मन में!
हूँ इस सफर का, मैं बंजारा,
दे रहा ये मौत पहरा,
इस प्रवाह को, मैने कब कहा,
तू साथ चल!
मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!
आप कितना साफ लिखते हैं! मैं आपकी रचनाओं का प्रशंसक हूँ। बहुत सिखने को मिलता है।
ReplyDeleteआपकी सराहना ही हमारा मनोबल बढाती है। इस सम्मान हेतु सदैव आभारी हूँ आदरणीय प्रकाश जी।
Deleteबहुत सुंदर कविता।
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (05-11-2019) को "रंज-ओ-ग़म अपना सुनाओगे कहाँ तक" (चर्चा अंक- 3510) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
दीपावली के पंच पर्वों की शृंखला में गोवर्धनपूजा की
हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाई।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर आभार आदरणीय
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 04 नवम्बर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteअनजान डगर और अकेले चलने का बायस .... सच है कोई किसी को नहीं बुलाता पर कोई आ जाये तो अच्छा लगता है ...
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय
Deleteसुन्दर रचना. . शुभकामनाएं
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय
Deleteमन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!
ReplyDeleteइस एक पंक्ति में ही आपने पूरे जीवन का सार कह दिया. बहुत खूब 👌👌👌
बहुत-बहुत धन्यवाद सुधा।
Deleteआदरनीय पुरुषोत्तम जी , मन मुग्ध कवि का ये सार संवाद अद्भुत है | साँस ही तो आधार है , यही तो वो पतवार है जिसके बिना जीवन की नैया बेकार है | भावपूर्ण और मौलिक विषय पर आपका लेखन अचम्भित कर जाता है | बहुत खूंब !!!!!!!!!!!!!
ReplyDeleteसराहना हेतु हृदयतल से आभार आदरणीया रेणु जी।
Deleteमन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!
ReplyDeleteइस एक पंक्ति में ही आपने पूरे जीवन का सार कह दिया. बहुत खूब 👌👌👌
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया
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