पिघलते सांझ सा, बहता किनारा,
कब, हो सका हमारा!
पर, गुजारे हैं, पल, सारे यहीं,
रख चले, बुनकर, सपनों के सारे, धागे यहीं,
पर, देखती कहाँ, पलट कर?
भागते, वो धारे,
बहा ले जाती, इक उम्र सारा!
पिघलते सांझ सा, बहता किनारा,
कब, हो सका हमारा!
पलटकर, लौट आती है रोज,
बरबस, भर एक आलिंगन, करती है बेवश,
पिघलता, वो रुपहला पहर,
डूबते, वो सहारे,
जैसे, कर जाते हैं.. बेसहारा!
पिघलते सांझ सा, बहता किनारा,
कब, हो सका हमारा!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 10 अगस्त 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteविनम्र आभार
Deleteपिघलते सांझ सा, बहता किनारा,
ReplyDeleteकब, हो सका हमारा!--
बहुत खूब...सांझ अमूमन यूं तो पिघल जाती है जब भी वह सूर्य की आगोश जाती है
विनम्र आभार
Deleteदेखती कहाँ पलट कर? भागते वो धारे। बहुत अच्छी, बहुत सच्ची, बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति है यह पुरुषोत्तम जी आपकी।
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय जितेन्द्र जी।
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