अधिकार-पूर्वक, मांगिए,
मतलब साधिए,
भले ही,
पर, देश को न बाँटिए!
जयचंद न बनिए,
राह, जिन्ना की न चलिए,
देखे हैं हमनें, पराधीनता की पराकाष्ठा,
फिर, डिग न जाए, ये आस्था,
देश ये, बँट न जाए,
अपने हाथों, हाथ अपना,
कट न जाए,
एक जिन्ना, राष्ट्र को ही, बाँट बैठा,
हाथ, खुद ही अपना, काट बैठा,
बचे हैं, कुछ रक्तबीज,
रोज ही, बोते हैं जो,
विभाजन के, रक्तिम विषैले-बीज!
पर, अब न होने देंगे, हम,
और विभाजन!
आप, सियासतें कीजिए,
रियायतें लीजिए,
भले ही,
पर, देश को न बाँटिए!
स्वार्थ-वश, होकर विवश,
कुछ भी बांचिए,
भले ही,
पर, देश को न बाँटिए!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
अच्छी कविता।
ReplyDeleteजी, धन्यवाद। ।।।
Deleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 14 दिसंबर 2020 को 'जल का स्रोत अपार कहाँ है' (चर्चा अंक 3915) पर भी होगी।--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
आभार
Deleteदेशहित सर्वोपरी पर सर्वोपरी किसान.
ReplyDeleteसुंदर कविता
न्यू पोस्ट- समानता
आभार आदरणीय
Deleteअत्यंत प्रभावी व मुखर लेखन ।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया
Deleteसुन्दर सृजन।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद
Deleteसुंदर और सटीक अभिव्यक्ति..।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीय ओंकार जी
Deleteस्वार्थ-वश, होकर विवश,
ReplyDeleteकुछ भी बांचिए,
भले ही,
पर, देश को न बाँटिए!
बहुतबढिया।
आदरणीया ज्योति जी, ब्लॉग पर आपके पुनःआगमण हेतु आभारी हूँ । बहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteगहन! देश हिताय देश विरोधी आंदोलन पर एक चिंतन , प्रशंसनीय,
ReplyDeleteबहुत सुंदर सार्थक सृजन।
आभारी हूँ आदरणीया। आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए महत्वपूर्ण है। बहुत-बहुत धन्यवाद।
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ReplyDeleteजयचंद न बनिए,
राह, जिन्ना की न चलिए,
देखे हैं हमनें, पराधीनता की पराकाष्ठा,
फिर, डिग न जाए, ये आस्था,
देश ये, बँट न जाए,
अपने हाथों, हाथ अपना,
कट न जाए,
देश को आपके जैसे कर्णधार की ही आवश्यकता है।
निरंतर रहे।
शुभकामनाएँ।
सादर।
आभारी हूँ आदरणीया सधु जी।
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