Friday, 19 April 2019

रिश्तों की चाय

फीकी ही सही, चाय, गर्म तो हो मगर,
रिश्ते ना सही, मायने, रिश्तों के तो हों मगर!

सिमट कर रह गए, रिश्तों के खुले पर,
महज औपचारिकताओं के, जकड़े पाश में
उड़ते नही ये, अब खुले आकाश में!

चहचहाते थे कभी, मीठी प्यालियों में,
उड़ते थे ये कभी, चाय संग सर्द मौसमों में,
अब बची, औपचारिकताएँ चाय में!

फीकी सी हुई, रिश्तों की सुगबुगाहट,
अब कहाँ है, चाय के प्यालियों की आहट,
हो न हो चीनी, कम गई है चाय में!

या जरूरतें! या स्वार्थ! हुई हैं प्रभावी,
या झूठी तरक्की, सब पे हो चुकी हैं हावी,
कम हो चुकी है, गर्माहट चाय में!

फीकी ही सही, चाय, गर्म तो हो मगर,
रिश्ते ना सही, मायने, रिश्तों के तो हों मगर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

12 comments:


  1. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (20-04-2019) को ""रिश्तों की चाय" (चर्चा अंक-3311) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    - अनीता सैनी

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  2. बिखरते जा रहे रिश्तों से अब आत्मीयता की उष्मा भी कम होती जा रही है ! चाय का रूपक बहुत अच्छा लगा ! सार्थक सृजन के लिए बधाई सिन्हा साहेब !

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  3. सुन्दर प्रस्तुति

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  4. वाह बहुत ही सुंदर चाय के माध्यम से रिश्तों के बदलते स्वरूप को बखूबी वर्णन किया है आपने।

    फीकी सी हुई, रिश्तों की सुगबुगाहट,
    अब कहाँ है, चाय के प्यालियों की आहट,
    हो न हो चीनी, कम गई है चाय में!
    अप्रतिम ।

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  5. चहचहाते थे कभी, मीठी प्यालियों में,
    उड़ते थे ये कभी, चाय संग सर्द मौसमों में,
    अब बची, औपचारिकताएँ चाय में!
    बहुत खूब आदरनीय पुरुषोत्तम जी | रिश्तों में बढती उदासीनता और स्नेह की गर्माहट की कमी को बहुत ही सार्थकता से लिखा आपने | सादर शुभकामनायें और बधाई |

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    1. आपके आशीर्वचनों हेतु आभारी हूँ आदरणीया।

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