निष्काम, स्वभाव धरें हम!
चल जरा फहराएँ, चेतना के परचम!स्वत्व की साधना, करते-करते,
निकल पड़े हैं, हम सब किस रस्ते?
विकल्प, खत्म हुए हैं सारे,
जग जीते, पर हैं मन के ही हारे,
मन को जीत, जरा ले हम!
बन जाएँ, जीवों में श्रेष्ठतम!
चल मिल फहराएँ, चेतना के परचम!
जब चलते-चलते, कर्म पथ पर,
निज स्वार्थ, होते हैं हावी निर्णय पर,
भूल कर, तब संकल्प सारे,
कदम, भटक जाते हैं गन्तव्यों से,
हावी हम पर, होते हैं अहम!
कहीं, निष्ठा छोड़ न दे हम!
चल जरा फहराएँ, चेतना के परचम!
निःस्वार्थ करें, कुछ कार्य हम,
चल जगाएँ चेतना, जलाएँ दीप हम,
दूर हों तम, हवस ये सारे,
मानवता जीते, हारे ये अंधियारे,
हावी ना हो, हम पे ये अहम!
डिगे ना, कर्तव्य से कदम!
चल मिल फहराएँ, चेतना के परचम!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (27-08-2019) को "मिशन मंगल" (चर्चा अंक- 3440) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार
Deleteअहम् का भाव हावी हो जाता है हर चीज़ पर ... ऐसे में निष्ठां छोडनी जरूरी हो जाती है ...
ReplyDeleteबहुत लाजवाब भावपूर्ण रचना ...
सादर आभार
Deleteनिःस्वार्थ करें, कुछ कार्य हम,
ReplyDeleteचल जगाएँ चेतना, जलाएँ दीप हम,
डिगे ना, कर्तव्य से कदम!
चल मिल फहराएँ, चेतना के परचम!
बहुत बहुत बढ़िया...
सादर आभार ।।।।
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