संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!
छोड़ दे ये दामन, अब तोड़ न मेरा मन,
पग के छाले, पहले से हैं क्या कम?
मुख मोड़, चला था मैं तुझसे,
रिश्ते-नाते सारे, तोड़ चुका मैं तुझसे!
पीछा छोर, तु अपनी राह निकल!
संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!
माना, था इक रिश्ता सहचर का अपना,
शर्तो पर अनुबन्ध, बना था अपना!
लेकिन, छला गया हूँ, मैं तुझसे,
दुःख मेरी अब, बनती ही नही तुझसे!
अनुबंधों से परे, है तेरा ये छल!
संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!
चुभोए हैं काँटे, पग-पग पाँवों में तुमने,
गम ही तो बाँटे, हैं इन राहों में तूने!
सखा धर्म, निभा है कब तुझसे?
दिखा एक पल भी, रहम कहाँ तुझमें?
इक पल न तू, दे पाएगा संबल!
संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!
ये दर्द बेइन्तहा, सदियों तक तूने दिया,
बगैर दुःख, मैंनें जीवन कब जिया?
तू भी तो, पलता ही रहा मुझसे!
फिर भी छल, तू करता ही रहा मुझसे!
अब और न कर, मुझ संग छल!
संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
छोड़ दे ये दामन, अब तोड़ न मेरा मन,
पग के छाले, पहले से हैं क्या कम?
मुख मोड़, चला था मैं तुझसे,
रिश्ते-नाते सारे, तोड़ चुका मैं तुझसे!
पीछा छोर, तु अपनी राह निकल!
संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!
माना, था इक रिश्ता सहचर का अपना,
शर्तो पर अनुबन्ध, बना था अपना!
लेकिन, छला गया हूँ, मैं तुझसे,
दुःख मेरी अब, बनती ही नही तुझसे!
अनुबंधों से परे, है तेरा ये छल!
संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!
चुभोए हैं काँटे, पग-पग पाँवों में तुमने,
गम ही तो बाँटे, हैं इन राहों में तूने!
सखा धर्म, निभा है कब तुझसे?
दिखा एक पल भी, रहम कहाँ तुझमें?
इक पल न तू, दे पाएगा संबल!
संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!
ये दर्द बेइन्तहा, सदियों तक तूने दिया,
बगैर दुःख, मैंनें जीवन कब जिया?
तू भी तो, पलता ही रहा मुझसे!
फिर भी छल, तू करता ही रहा मुझसे!
अब और न कर, मुझ संग छल!
संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 10.10.19 को चर्चा मंच पर चर्चा -3484 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
सादर आभार
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 10 अक्टूबर 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसादर आभार ।
Deleteचुभोए हैं काँटे, पग-पग पाँवों में तुमने,
ReplyDeleteगम ही तो बाँटे, हैं इन राहों में तूने!
सखा धर्म, निभा है कब तुझसे?
दिखा एक पल भी, रहम कहाँ तुझमें?
इक पल न तू, दे पाएगा संबल!
संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!... बहुत सुन्दर सृजन आदरणीय सर
सादर
आभार आदरणीया अनीता जी।
Deleteमाना, था इक रिश्ता सहचर का अपना,
ReplyDeleteशर्तो पर अनुबन्ध, बना था अपना!
लेकिन, छला गया हूँ, मैं तुझसे,
दुःख मेरी अब, बनती ही नही तुझसे!
अनुबंधों से परे, है तेरा ये छल! बेहतरीन प्रस्तुति
आभार आदरणीया अनुराधा जी। पूजा की शुभकामनाएं स्वीकार करें ।
ReplyDeleteचुभोए हैं काँटे, पग-पग पाँवों में तुमने,
ReplyDeleteगम ही तो बाँटे, हैं इन राहों में तूने!
सखा धर्म, निभा है कब तुझसे?
दिखा एक पल भी, रहम कहाँ तुझमें?
इक पल न तू, दे पाएगा संबल!
संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!
सही कहा कभी तो लगता है पीछे ही पड़ गया है ये दुख अपने....जितनी हिम्मत रखो कम ही पड़ती जाती है....
बहुत ही सुन्दर सृजन।
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया सुधा देवरानी जी। दुर्गा पूजा की शुभकामनाएं स्वीकार करें ।
Deleteदुःख जब साथी बन ही गया था तो आदत क्यों न डाली इसकी आपने..बल्कि आपकी आदत तो इसे पड़ ही गयी ना.
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन रचना.
सादर आभार आदरणीय ।
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