Thursday, 23 January 2020

दर्पण मेरा

अब नहीं पहचानता, मुझको ये दर्पण मेरा!
मेरा ही आईना, अब रहा ना मेरा!

पहले, कभी!
उभरती थी, एक अक्स,
दुबला, साँवला सा,
करता था, रक्स,
खुद पर,
सँवर लेता था, कभी मैं भी,
देख कर,
हँसीं वो, आईना,
पहले, कभी!

अब कभी देखता हूँ, जब कहीं मैं आईना!
सोच पड़ता हूँ मैं! ये मैं ही हूँ ना?

अब, जो हूँ!
बुत, इक, वही तो हूँ,
मगर, अंजाना सा,
हुआ है, अक्स,
बे-नूर,
वक्त की थपेडों, से चूर-चूर,
मजबूर,
कहीं, दर्पण से दूर,
अब, जो हूँ!

अब ना रहा, मैं आईने में, उस मैं की तरह!
हैरान है, ये आईना, मेरी ही तरह!

मुझ में ही!
बही, एक जीवन कहीं,
जीवंत, सरित सी,
वो, बह चला
सलिल,
बे-परवाह, अपनी ही राह,
मुझसे परे,
छोड़ अपने, निशां,
मुझ में ही!

हरेक झण, चुप-चुप रहा, सामने ये दर्पण!
मेरे अक्स, चुराता, मेरा ये दर्पण!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

6 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 23 जनवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (24-01-2020) को  " दर्पण मेरा" (चर्चा अंक - 3590)  पर भी होगी
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
    महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    .....
    अनीता लागुरी 'अनु '

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  3. बहुत खूब....,समय के साथ सब कुछ बदलता ही रहता हैं,सुंदर सृजन ,सादर नमन

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