ये तैमूर, बाबर, चंगेज, अंग्रेज,
लूटे थे, उसने ही देश,
ना फिर से हो, उनका प्रवेश,
हो नाकाम, वो ताकतें,
हों वो, निस्तेज!
संम्प्रभुत्व हैं हम, संम्प्रभुता ही शान मेरा,
रक्षा स्वाभिमान की, करेगा ये संविधान मेरा!
चाहे कौन? घर रहे दुश्मन,
सीमा का, उल्लंघन,
जिन्दा रहे, कोई दुस्साशन,
वो लूटे, अस्मतें देश की,
रहें, खामोश हम!
रहे सलामत देश, अधूरा है अरमान मेरा,
बचे कोई दरवेश, होगा चूर अभिमान मेरा!
जब भी बंद, रही ये आँखें,
टूटी, देश की शाखें,
जले देश-भक्त, उड़ी राखें,
रहे बस, मूरख ही हम,
बंगले ही, झांके!
भड़की फिर चिंगारी, जल उठा देश मेरा,
फिर ये मारामारी, सुलग रहा परिवेश मेरा!
शीत-लहरी, न काम आई,
ना ही, ठंढ़ी पुरवाई,
देते, समरसता की दुहाई,
सुलगते, भावनाओं की,
अंगीठी, सुलगाई!
क्यूँ नेता वो? कदमों में जिनके देश मेरा,
क्यूँ शब्द-वीर वो? क्यूँ है मेरा शब्द अधूरा?
सुलगाई चिंगारी,
जलाया उसने ही देश मेरा!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 09 जनवरी 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
1937...क्योंकि लगी आग में झुलसा अपने घर का कोई नहीं होता है...
इस रचना को अपने पटल उद्धृत करने हेतु साधुवाद आदरणीय। इस भाव को जन-जन तक पहुँचाएँ, तो और भी अच्छा।
Deleteकेवल बाहरी ततैया को कोसने से कुछ नहीं होता, अंदर के दीमक को भी पहचानना होगा ... कोई भी बाहरी आक्रमण भीतरी अकर्मण्यता से ही होती है ... आइना दिखाने के पहले हमें भी स्वयं आइना देखना होगा ...
ReplyDeleteअगर इतिहास अपनी भावी पीढ़ियों को केवल अंक-प्राप्ति के लिए ना पढ़ा कर सबक़ की नजरिया पैदा कर के पढ़ाई जाए तो कुत्सित इतिहास कभी भी दुहरा नहीं सकता कोई ...सादर ...
बेहतर कहा आपने। स्वयं को आईने में देखना होगा।
Deleteचोट तो अपनों ने पहुँचाई, ग़ैरों में कहाँ दम था, खोट है अपनी ही नीयत में, ये गम क्या कम था, आजाद हुए हम वर्षो पहले, ये आजादी क्या कम था, अब डूब रहे हम आजाद गगन में, चोट लगी है फिर इस मन में, पढना-लिखना व्यर्थ हुआ, डूब रहे हैं हम जब, पानी भी कम था।
Deleteचोट दे रहे, समाज के चेतक, चोट उन्हें अब पहुँचाना है, व्यर्थ हमें क्यूँ टूट जाना है।
लाजवाब रचना। आपके ब्लॉग का पन्ना खुलने में बहुत देर लगा रहा है। समस्या मेरे पन्ने पर भी आयी थी। लेबल गैजेट हटाया तो ठीक हो गया था।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
Deleteआभारी हूँ आपका। आपके सुझावों पर गौर करते हुए, आंशिक परिवर्तन करने की कोशिश कर रहा हूँ । सहयोग हेतु धन्यवाद आदरणीय ।
Deleteअब पेज जल्दी लोड होने लगा है।
Deleteआपके मूल्यवान सुझावों व मार्गदर्शन हेतु आभारी हूँ आदरणीय ।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (10-01-2019 ) को "विश्व हिन्दी दिवस की शुभकामनाएँ" (चर्चा अंक - 3576) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
अनीता लागुरी"अनु"
क्या बात है ! खूबसूरत प्रस्तुति ! बहुत खूब आदरणीय ।
ReplyDeleteआदरणीय राजेश जी, आपकी प्रतिक्रिया हेतु आभारी हूँ। बहुत-बहुत धन्यवाद ।
Deleteचोट दे रहे, समाज के चेतक, चोट उन्हें अब पहुँचाना है, व्यर्थ हमें क्यूँ टूट जाना है।
ReplyDeleteइस वाक्यों में ही ऐसी जटिल परिस्थिति का
समाधान है।
समसामयिक रचना, जिसका मैंं खुलकर समर्थन करता हूँँ।
भैया जी प्रणाम।
हार्दिक आभार आदरणीय पथिक जी।
Deleteबेहतरीन अभिव्यक्ति ,सादर नमन
ReplyDeleteआदरणीया कामिनी जी, बहुत-बहुत धन्यवाद ।
Deleteबहुत अच्छी सम-सामयिक रचना
ReplyDeleteआदरणीया कविता रावत जी, पुनः स्वागत है। हार्दिक धन्यवाद।
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