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Saturday, 17 April 2021

सब्र

यूँ, सब्र के धागों को तुम तोड़ो ना!

हो, कितनी दूर, हकीकत, 
पर, मुमकिन है, सच को पा लें हम,
यूँ ही, खो जाने की बातें,
अब और करो ना!

सच से, यूँ ही आँखें तुम फेरो ना!

अन्धियारा, छा जाने तक,
चल, बुझता इक दीप, जला लें हम,
यूँ ही, घबराने की बातें, 
अब और करो ना!

यूँ ही, आशा का दामन छोड़ो ना!

जाना है, उन सपनों तक,
हकीकत ना बन पाए, जो अब तक,
यूँ, मुकर जाने की बातें,
अब और करो ना!

जज्ब से, जज्बातों को मोड़ो ना!

हो, कितनी दूर, हकीकत,
यूँ सच को, झुठलाए कोई कब तक,
यूँ ही, बैठ जाने की बातें,
अब और करो ना

यूँ, जीवन से आँखें तुम फेरो ना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 7 February 2021

दूर कितना

है, दूर कितना, कितने पास!
मेरा आकाश!

छू लेता हूँ, कभी, हाथों को बढ़ाकर,
कभी, पाता हूँ, दूर कितना!
पल-पल, पिघलता हो, जैसे कोई एहसास, 
द्रवीभूत कितना, घनीभूत कितना,
मेरा आकाश!

है, दूर कितना, कितने पास!

हो दूर लेकिन, हो एहसासों में पिरोए,
बांध लेते हो, कैसे बंधनों में!
पल-पल, घेर लेता हो, जैसे कोई एहसास,
गुम-सुम, मौन, पर वाचाल कितना!
मेरा आकाश!

है, दूर कितना, कितने पास!

गुजरते हो, कभी, मुझको यूँ ही छूकर,
जगा जाते हो, कभी जज्बात,
पल-पल, भींच लेते हो, भरकर अंकपाश,
शालीन सा, पर, चंचल है कितना!
मेरा आकाश!

है, दूर कितना, कितने पास!

काश, ख्वाहिशों के, खुले पर न होते,
इतने खाली, ये शहर न होते!
गूंज बनकर, न चीख उठता, ये आकाश,
वो, एकान्त में, है अशान्त कितना!
मेरा आकाश!

है, दूर कितना, कितने पास!
मेरा आकाश!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
    (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 20 December 2020

और कितने दूर

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

सब तो, छूट चुका है पीछे,
फिर भागे मन, किन सपनों के पीछे,
वो, जो है रातों के साए,
कब हाथों में आए,
जाने, कहाँ-कहाँ, भटकाएगी,
अधूरी मन की चाह!

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

जाने कब, भूल चुके सब,
मन के स्नेहिल बंधन, तोड़ चले कब,
बिसराए, नेह भरे गंध, 
वो गेह भरे सुगंध,
तन्हा पल में, याद दिलाएगी,
बन कर इक आह!

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

अब तक, लब्ध रहा क्या!
क्या प्रासंगिक थी, सारी उपलब्धियाँ!
गिनता हूँ अब तारों को,
मलता हूँ हाथों को,
झूठी चाहत, क्या करवाएगी?
बस, भटकाएगी राह!

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

प्रसंग कई, जब छूट चले,
जाना, जब खुद अप्रासंगिक हो चले,
तर्क, भला  क्या देना!
राहों में, क्या रोना!
इस प्रश्नकाल में, जग जाएगी!
इक तृष्णा इक चाह!

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 23 January 2020

दर्पण मेरा

अब नहीं पहचानता, मुझको ये दर्पण मेरा!
मेरा ही आईना, अब रहा ना मेरा!

पहले, कभी!
उभरती थी, एक अक्स,
दुबला, साँवला सा,
करता था, रक्स,
खुद पर,
सँवर लेता था, कभी मैं भी,
देख कर,
हँसीं वो, आईना,
पहले, कभी!

अब कभी देखता हूँ, जब कहीं मैं आईना!
सोच पड़ता हूँ मैं! ये मैं ही हूँ ना?

अब, जो हूँ!
बुत, इक, वही तो हूँ,
मगर, अंजाना सा,
हुआ है, अक्स,
बे-नूर,
वक्त की थपेडों, से चूर-चूर,
मजबूर,
कहीं, दर्पण से दूर,
अब, जो हूँ!

अब ना रहा, मैं आईने में, उस मैं की तरह!
हैरान है, ये आईना, मेरी ही तरह!

मुझ में ही!
बही, एक जीवन कहीं,
जीवंत, सरित सी,
वो, बह चला
सलिल,
बे-परवाह, अपनी ही राह,
मुझसे परे,
छोड़ अपने, निशां,
मुझ में ही!

हरेक झण, चुप-चुप रहा, सामने ये दर्पण!
मेरे अक्स, चुराता, मेरा ये दर्पण!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 9 January 2019

छद्मविभोर

हर सांझ, मैं किरणों के तट पर,
लिख लेता हूँ, थोड़ा-थोड़ा सा तुझको.....

कहीं तुम्हारे होने का,
छद्म विभोर कराता एहसास,
और ये दूरी का,
विशाल-काय आकाश,
सीमा-विहीन सी शून्यता,
गहराती सी ये सांझ,
रिक्तता का देती है आभास,
गगन पर दूर,
कहीं मुस्काता है वो चाँद,
छद्मविभोर हो उठता है ये मन...

हर सांझ, सीमा-हीन इस तट पर,
लिख लेता हूँ, मैं थोड़ा-थोड़ा तुझको.....

पंछी से लेता हूँ कलरव
किरणों से ले लेता हूँ तुलिकाएँ,
छंद कोई गढ़ लेता हूँ,
तस्वीर अधूरी सी,
उभार लाती है ये सांझ,
सजग हो उठती है कल्पना,
दूर क्षितिज पर,
नीलाभ सा होता आकाश,
संग मुस्काता वो चाँद,
छद्मविभोर हो उठता है ये मन...

हर सांझ, नील गगन के तट पर,
लिख लेता हूँ, मैं थोड़ा-थोड़ा तुझको.....

Friday, 2 February 2018

जो मन को भाता है

वो, जो मन को भाता है,
कहीं मुझको मीलों दूर लिए जाता है.......

हौले से छू जाता है,
नीरव पल में सहलाता है
काल समय सीमा के परे,
स्पंदन बन जाता है....

वो, जो मन को भाता है,.......

कभी मन ये दूर निकल जाता है,
तन्हा फिर भी रह जाता है,
मरुभूमि से सूने आंगण में काँटों सा,
जब नागफनी डस जाता है,
नीरवता के उस बीहड़ जंगल में,
व्याकुल सा ये मन जब घबरा जाता है,
फिर करता है अपने मन की,

वो, जो मन को भाता है,.......

जब कोई भी लम्हा तड़पाता है,
सुख चैन भटक सा जाता है,
छूट जाती है जब मंजिल की आशा,
और हताश पल डस जाता है,
जीवन के उस बिखरे से प्रांगण में,
विह्वल मन जब खुद को तन्हा पाता है,
करता है फिर अपने मन की,

वो, जो मन को भाता है,.......
नीरवता से कहीं दूर, मीलों दूर, .......

हौले से छू जाता है,
नीरव पल में सहलाता है
काल समय सीमा के परे,
स्पंदन बन जाता है....

वो, जो मन को भाता है,.......
कहीं मुझको मीलों दूर लिए जाता है.......

Friday, 16 December 2016

दूर वहाँ

न है कोई, इक मेरे सिवा उस भूल-भुलैया के उस पार..

हाथों से जैसे छिटकी थी वो रश्मि-किरण सी,
ज्युँ दूर गगन में वापस जाता हो पाखी,
दूर होता रहा मैं उससे जितना,
उसकी यादें सिमटती रही उतनी ही पास भी.....

उस अंतिम छोर में अब कोई प्रतीक्षारत नहीं,
ना ही इस मोड़ में भी है कोई,
मैं रहा सदैव एकाकी, बूढ़ा बरगद, सिमटती नदी,
विलीन हुए सब सांध्य कोलाहल,
उड़ गए सुदूर जैसे सारे प्रवासी पाखी।

पिघली है बर्फ़ फिर इन वादियों में,
या फिर दिल में जगी है कोई आस पुरानी,
गोधूलि बेला,सिंदूरी आकाश, तुलसी तले जलता दीप,
वही अनवरत झुर्रियों से उभरती हुई,
तेरी मेरी जीवन की अनन्त अधुरी सी कहानी।

सपाट से हो चले वो तमाम स्मृति कपाट
अपने आप जब हो चलें हैं बंद,
तब अंतरपट खोले वो करती हो इंतजार
उस नव दिगंत असीम के द्वार,
शायद चलती रहे निरंतर यह असमाप्त अन्तर्यात्रा !

पर कोई तो नहीं मेरे लिए उस भूल-भुलैया के उस पार..

Monday, 29 August 2016

दूरियों के एहसास

हाँ, तब महसूस करता है ये मन दूरियों के एहसास....

गुम सी होती जाती है .........
जब वियावान में कहीं मेरी आवाज,
जब गूँज कहकहों की..........
ना बन पाते है मेरे ये अल्फाज,
प्रतिध्वनि मन की जब........
मन में ही गूँजते हैं बन के साज,
उस पल महसूस करता है मन दूरियों के एहसास....

जब चांद सिमट जाता है......
टूटे से बादलों की बिखरी सी बाहों में,
रौशनी छन-छनकर आती है जब.....
उमरते बादलों सी लहराती सी सायों से,
चाँदनी टकराती है जब....,
ओस की बूँदों में नहाई नर्म पत्तों से,
उस पल महसूस करता है मन दूरियों के एहसास....

तुम हो यहीं पर कही....
मन को होता है हर पल ये एहसास,
पायल जब खनकती है कहीं....
दिला जाती है बरबस वो तेरी ही याद,
झुमके की लड़ियाँ हो मेले में सजी....
ख्यालों में तुम आ जाती हो अनायास,
उस पल महसूस करता है मन दूरियों के एहसास....

हाँ, तब महसूस करता है ये मन दूरियों के एहसास....

Tuesday, 23 February 2016

यादों मे ढ़ल रही शाम

रुत शाम की आज फिर से घिर आई,
घटाएँ यादों की घिरकर, फिर मन पे हैं छाई,
ढूंढती हैं नजरे अब दूर तलक,
ये फैली है आज कैसी मीलों तक तन्हाई।

मन बावरा भ्रमर सा उड़ रहा अब,
बाग की हर कली से पूछता उनका पता बस,
सिमट रही घुंघट मे हर कली,
मन भ्रमर उदास मलिन हो रहा अब।

कतारों में जल गईं हैं अब हर तरफ रौशनी सी,
जल रही जो मेरे लिए, है वो दीप कौन सी, 
ढ़ल रही सांझ मन मे टीस लिए,
यादों में ढ़ल रही ये घड़ी उदास सी।