बेशक दुश्मन बड़ा, मन इक शक भरा!
उस मन, पल न सका इक पौधा विश्वास का,
भरोसे का, उग न सका, इक बीज,
शक, बेशक बांझ करे मन को,
डसे, पहले खुद को,
फिर, रह-रह, दे मन को दर्द बड़ा!
बेशक दुश्मन बड़ा, मन इक शक भरा!
उजड़ी, फुलवारी, कितनी ही, मन की क्यारी,
मुरझाए, आशाओं के, वृक्ष सभी,
बिखर चले, मन उप-वन सारे,
सूख चली, वो नदी,
जो सदियों, पर्वत के, शीश चढ़ा!
बेशक दुश्मन बड़ा, मन इक शक भरा!
सशंकित मन, विचरे निर्मूल शंकाओं के वन,
पाले, बर-बस, निरर्थक आशंका,
विराने, पथ पर, घन में घिरा,
ढूंढ़े, अपना ही पग,
अनिर्णय के, उन राहों पर खड़ा!
बेशक दुश्मन बड़ा, मन इक शक भरा!
निर्मल इक संसार, इस, बादल के उस पार,
बहती है, शीतल सी, एक पवन,
शक के बादल, उड़ जाने दे,
मन, जुड़ जाने दे,
टूट न जाए शीशा, विश्वास भरा!
बेशक दुश्मन बड़ा, मन इक शक भरा!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
बिलकुल सत्य🙂
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
Deleteशक जीवन में दुखः के अतिरिक्त कुछ नहीं देता । सच कहती रचना ।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
Deleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 2.6.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4449 में दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति चर्चाकारों का हौसला बढ़ाएगी
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
बहुत बहुत धन्यवाद
Deleteशक़ हमारा ही शिकार करता है.
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
Deleteशक जैसी बीमारी पर सुन्दर अभिव्यक्ति !
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
Deleteशक ! जीवन को झकझोरने वाली बीमारी।
ReplyDeleteआपकी बहुमूल्य टिप्पणी हेतु बहुत बहुत धन्यवाद ....
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