मुड़ कर, देख रही अखियां मींचे,
कितने ख्वाब, कितने अरमां, कितनी हसरतें,
छोड़ चला, जिनको पीछे!
करता भी क्या, पंख लगे थे पैरों पर,
मुड़ जाता भी कैसे, मजबूरी हर कदमों पर,
रहा देखता, कभी, यूं रुक-रुक कर,
बहते राहों के, उन साहिल पर,
छोड़ चला, जिनको पीछे!
मुड़ कर, देख रही अखियां मींचे...
अनसुनी, संवेदनाओं की सिसकियां,
अनकहे जज्बातों की, बिसरी सब गलियां,
पुकारती हैं कभी, अनुगूंज बनकर,
रोकते कहीं, टूटे वादों के गूंज,
छोड़ चला, जिनको पीछे!
मुड़ कर, देख रही अखियां मींचे...
धीर धरे कैसे, और, आए कैसे होश,
वश के बाहर, बेवश सा इक खानाबदोश,
बना लेता, भंगुर, अरमानों का ठांव,
ढूंढता, उन्हीं हसरतों का छांव,
छोड़ चला, जिनको पीछे!
मुड़ कर, देख रही अखियां मींचे,
कितने ख्वाब, कितने अरमां, कितनी हसरतें,
छोड़ चला, जिनको पीछे!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
Excellent sir🙏
ReplyDeleteThanks a lot
DeleteExcellent Sir 🙏
ReplyDeleteThanks a lot
Deleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 28.7.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4504 में दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति चर्चाकारों का हौसला बढ़ाएगी
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबाग
बहुत बहुत धन्यवाद
Deleteमजबूरी और जिम्मेदारियों के बीच शांती की तलाश मे मानव मन की व्यथा को उकेरती और मानवीय जज्बातों को प्रदर्शित करती हुई बहुत ही सुंदर रचना 🙏
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 28 जुलाई 2022 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
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आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 28 जुलाई 2022 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
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आभार
Deleteयथार्थ चित्रण और मानवीय संवेदनाओं से सजी कविता,
ReplyDeleteअति सुन्दर
सादर
बहुत बहुत धन्यवाद
Deleteबहुत खूब
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
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