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Thursday, 20 September 2018

कहकशाँ

तुम हो, अस्तिव है कहीं न कहीं तुम्हारा....

बादलों के पीछे, उस चाँद के सरीखे,
छुपती छुपाती, तू ही तू बस दिखे,
मन को न इक पल भी गंवारा,
कि अस्तिव, कहीं भी नही है तुम्हारा....

तुम हो, अस्तिव है कहीं न कहीं तुम्हारा....

होती न तुम तो, बरसते न मेघ ऐसे,
उड़ते न फिर, मेघों से केश ऐसे,
भटकते न, बादल ये आवारा,
न ही भीगता, बेजार सा ये मन बेचारा...

तुम हो, अस्तिव है कहीं न कहीं तुम्हारा....

तारों की पूंज में, कहीं तुम हो छुपी,
हो रही है जहाँ, मद्धम सी रौशनी,
चमकती वो आँखे ही हैं तेरी,
है तुमसे ही, कहकशाँ सा सुंदर नजारा....

तुम हो, अस्तिव है कहीं न कहीं तुम्हारा....

रिमझिम हुई, जब कहीं भी बारिशें,
राग मल्हार जब कहीं भी छिड़े,
खनकी है आवाज बस तेरी,
बजते हैं सितार, हो जैसे सुर तुम्हारा.... 

तुम हो, अस्तिव है कहीं न कहीं तुम्हारा....

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कहकशाँ का अर्थ :
- आकाश में दूरस्थ तारों का ऐसा समूह जो धुँधले बादल जैसा दिखाई देता है; आकाशगंगाछायापथ; (मिल्की वे)।

Tuesday, 3 May 2016

मेरा एकान्त मन


मेरा मन,
जैसे एकान्त आकाश में उड़ता अकेला पतंग,
इन्तजार ये करता है किसका एकान्त में,
कब झाँक पाया है कोई मन के भीतर उस प्रांत में,
हर शाम यह सिमट आता खुद ही अपने आप में।

मेरा मन,
जैसे निर्जन वियावान में आवारा सा बादल,
बरस पड़ता है ये कहीं किसी जंगल में,
कब जान पाया है कोई क्या होता मन के आंगण में,
सावन के बूंदों सा भर आता है मन चुपचाप ये।

मेरा मन,
मत खेलना तुम कभी मेरे इस कोमल मन से,
अकेलेपन के सैकड़ों दबिश भी हैं इनमें,
कब पढ़ पाया है कोई मेरे मन के अन्दर की भाषा,
अब कौन दे दिलाशा इसे, चटका है कई बार ये।

मेरा एकान्त मन, मौन है किसी मूक बधिर सा ये।