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Sunday, 4 July 2021

आशियाँ

यही चमन, बस यही आशियाँ मेरा,
यहीं सांझ, यहीं सवेरा!

भटक जाता हूँ, कभी...
उड़ जाता हूँ, मानव जनित, वनों में,
सघन जनों में, उन निर्जनों में,
है वहाँ, कौन मेरा?

यही चमन, बस यही आशियाँ मेरा,
यही सांझ, यहीं सवेरा!

यहाँ बुलाए, डाल-डाल,
पुकारे पात-पात, जगाए हर प्रभात,
स्नेहिल सी लगे, हर एक बात,
है यही, जहान मेरा!

यही चमन, बस यही आशियाँ मेरा,
यही सांझ, यहीं सवेरा!

सुखद कितनी, छुअन,
छू जाए मन को, बहती सी ये पवन, 
पाए प्राण, यहीं, निष्प्राण तन,
मेरे साँसों का ये डेरा!

यही चमन, बस यही आशियाँ मेरा,
यही सांझ, यहीं सवेरा!

डर है, आए न पतझड़,
पड़ न जाए, गिद्ध-मानव की नजर,
उजड़े हुए, मेरे, आशियाने पर,
अधूरा है अनुष्ठान मेरा!

यही चमन, बस यही आशियाँ मेरा,
यही सांझ, यहीं सवेरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 26 January 2021

मन कह न पाए अलविदा

जीवन के क्षणों में,
जीवन, बस रहा, कहीं उन निर्जनों में!

कभी हो जाए, कोई विदा,
फिर भी, मन कह न पाए, अलविदा!
शायद, यही इक सुख-सार,
है यही, संसार,
धागे जोड़ ले मन, 
दुरूह, विदाई के क्षणों में ....

भटके ये मन, बंधे, कहीं उन निर्जनों में!

मन से परे, मन के अवयव,
मन सुने, उस अनसुने, गीतों की रव!
कंप-कंपाते, मन की पुकार,
मन की, गुहार,
दूर, कैसे रहे मन,
कंपित, जुदाई के क्षणों में .....

भटके ये मन, बंधे, कहीं उन निर्जनों में!

ढ़ूँढ़े वहाँ मन अपना साया,
विकल्प सारे, वो, जहाँ छोड़ आया!
क्षीण कैसे, हो जाए मल्हार,
नैनों के, फुहार,
कैसे संभले ये मन,
निष्ठुर, रिहाई के क्षणों में .....

जीवन के क्षणों में,
जीवन, बस रहा, कहीं उन निर्जनों में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 27 September 2018

मन के आवेग

आवेग कई रमते इस छोटे से मन में,
जैसे बूँदें, बंदी हों घन में....

गम के क्षण, मन सह जाता है,
दुष्कर पल में, बह जाता है,
तुषारापात, झेल कर आवेगों के,
विकल हो जाता है.....

मन कोशों दूर निकल जाता है,
फिर वापस मुड़ आता है,
बंधकर आवेगों में, रम जाता है,
वहीं ठहर जाता है...

प्रवाह प्रबल मन के आवेगों में,
कहीं दूर बहा ले जाता है,
कण-कण प्लावित कर जाता है,
बेवश कर जाता है....

गर वश होता इन आवेगों पर,
धीर जरा मन को आता,
खुद को ले जाता निर्जन वन में,
चैन जहाँ रमता है...

आवेग कई रमते इस छोटे से मन में,
जैसे बूँदें, बंदी हों घन में....

Tuesday, 3 May 2016

मेरा एकान्त मन


मेरा मन,
जैसे एकान्त आकाश में उड़ता अकेला पतंग,
इन्तजार ये करता है किसका एकान्त में,
कब झाँक पाया है कोई मन के भीतर उस प्रांत में,
हर शाम यह सिमट आता खुद ही अपने आप में।

मेरा मन,
जैसे निर्जन वियावान में आवारा सा बादल,
बरस पड़ता है ये कहीं किसी जंगल में,
कब जान पाया है कोई क्या होता मन के आंगण में,
सावन के बूंदों सा भर आता है मन चुपचाप ये।

मेरा मन,
मत खेलना तुम कभी मेरे इस कोमल मन से,
अकेलेपन के सैकड़ों दबिश भी हैं इनमें,
कब पढ़ पाया है कोई मेरे मन के अन्दर की भाषा,
अब कौन दे दिलाशा इसे, चटका है कई बार ये।

मेरा एकान्त मन, मौन है किसी मूक बधिर सा ये।