मेरा मन,
जैसे एकान्त आकाश में उड़ता अकेला पतंग,
इन्तजार ये करता है किसका एकान्त में,
कब झाँक पाया है कोई मन के भीतर उस प्रांत में,
हर शाम यह सिमट आता खुद ही अपने आप में।
मेरा मन,
जैसे निर्जन वियावान में आवारा सा बादल,
बरस पड़ता है ये कहीं किसी जंगल में,
कब जान पाया है कोई क्या होता मन के आंगण में,
सावन के बूंदों सा भर आता है मन चुपचाप ये।
मेरा मन,
मत खेलना तुम कभी मेरे इस कोमल मन से,
अकेलेपन के सैकड़ों दबिश भी हैं इनमें,
कब पढ़ पाया है कोई मेरे मन के अन्दर की भाषा,
अब कौन दे दिलाशा इसे, चटका है कई बार ये।
मेरा एकान्त मन, मौन है किसी मूक बधिर सा ये।
No comments:
Post a Comment