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Thursday 27 July 2017

उम्र की दोपहरी

उम्र की दोपहरी, अब छूने लगी हलके से तन को...

सुरमई सांझ सा धुँधलाता हुआ मंजर,
तन को सहलाता हुआ ये समय का खंजर,
पल पल उतरता हुआ ये यौवन का ज्वर,
दबे कदमों यहीं कहीं, ऊम्र हौले से रही है गुजर।

पड़ने लगी चेहरों पर वक्त की सिलवटें,
धूप सी सुनहरी, होने लगी ये काली सी लटें,
वक्त यूँ ही लेता रहा अनथक करवटें,
हाथ मलती रह गई हैं,  जाने कितनी ही हसरतें।

याद आने लगी, कई भूली-बिसरी बातें,
वक्त बेवक्त सताती हैं, गुजरी सी कई लम्हातें,
ढलते हुए पलों में कटती नहीं हैं रातें,
ये दहलीज उम्र की,  दे गई है सैकड़ों सौगातें।

एहसास की बारीकियों से हो आबद्ध,
दिए हैं जो वचन, उन बंधनों के हो प्रतिबद्ध,
उम्र के स्नेहिल स्पर्श से होकर स्तब्ध,
अग्रसर अवसान की राह पर, हरक्षण कटिबद्ध।

उम्र की दोपहरी, अब छूने लगी हलके से तन को...

Monday 17 April 2017

वक्त के सिमटते दायरे

हैं ये वक्त के सिमटते से दायरे,
न जाने ये कहाँ, किस ओर लिए जाए रे?

अंजान सा ये मुसाफिर है कोई,
फिर भी ईशारों से अपनी ओर बुलाए रे,
अजीब सा आकर्षण है आँखो में उसकी,
बहके से मेरे कदम उस ओर खीचा जाए रे,
भींचकर सबको बाहों में अपनी,
रंगीन सी बड़ी दिलकश सपने ये दिखाए रे!

हैं ये वक्त के सिमटते से दायरे,
न जाने ये कहाँ, किस ओर लिए जाए रे?

छीनकर मुझसे मेरा ही बचपन,
मेरी मासूमियत दूर मुझसे लिए जाए रे,
अनमने से लड़कपन के वो बेपरवाह पल,
मेरे दामन से पल पल निगलता जाए रे,
वो लड़कपन की मीठी कहानी,
भूली बिसरी सी मेरी दास्तान बनती जाए रे!

हैं ये वक्त के सिमटते से दायरे,
न जाने ये कहाँ, किस ओर लिए जाए रे?

टूटा है अल्हर यौवन का ये दर्पण,
वक्त की विसात पर ये उम्र ढली जाए रे,
ये रक्त की बहती नदी नसों में ही सूखने लगी,
काया ये कांतिहीन पल पल हुई जाए रे,
उम्र ये बीती वक्त की आगोश में ,
इनके ये बढते कदम कोई तो रोके हाए रे!

हैं ये वक्त के सिमटते से दायरे,
न जाने ये कहाँ, किस ओर लिए जाए रे?

Saturday 24 September 2016

बचपना

देखो ना, बीत गई उम्र सारी पर बीता न बचपना।

दौड़ पड़ता हूँ आज भी खेतों की आरी पर,
विचलित होता हूँ अब भी पतंगें कटती देखकर,
बेताब झूलने को मन झूलती सी डाली पर,
मन चाहता है अब, कर लूँ मैं फिर शैतानियाँ ....

देखो ना, बीत गई उम्र सारी पर बीता न बचपना,

लटकते बेरी पेड़ों के, मुझको हैं ललचाते,
ठंढी छाँव उन पेड़ों के, रह रहकर पास बुलाते,
मचल जाता हूँ मै फिर देखकर गिल्ली डंडे,
कहता है फिर ये मन, चल खेले कंचे गोलियाँ.....

देखो ना, बीत गई उम्र सारी पर बीता न बचपना।

यौवन की दहलीज पर उम्र हमें लेकर आया,
छूट गए सब खेल खिलौने, छूटा वो घर आंगना,
बचपन के वो साथी छूटे, छूटी सब शैतानियाँ,
पर माने ना ये मन , करता यह नादानियाँ....

देखो ना, बीत गई उम्र सारी पर बीता न बचपना।

Saturday 18 June 2016

धीरज

ओ मेरे उर के विह्वल दुलार!
कहो, क्या है तुझमें इतना धीरज.........
कि यूँ ही तुम चलते रहो उम्र भर साथ,
बिन आशा, बिन आकांक्षा, बिन अभिलाषा,
रहो हाथों में बस गहे यूँ ही हाथ?

ओ मेरे उर के विह्वल दुलार!
तुम सब झूठा हो जाने दो कहा-सुना,
कहना-सुनना क्या बस देखो इक सपना,
छल जाने दो उर को बस, रहो निराश उदास,
रहो हाथों में बस गहे यूँ ही हाथ?

ओ मेरे उर के विह्वल दुलार!
अब उठे भी कहाँ से प्यार की बात,
असमंजस हों कदम-कदम पर उर में जब,
इस मन के एकाकी तारे को दो बस यूँ उछाल,
रहो हाथों में बस गहे यूँ ही हाथ?

ओ मेरे उर के विह्वल दुलार!
कहो, क्या है तुममें इतना धीरज.........

Sunday 15 May 2016

दूरियों के दरमियाँ

हमको जुदा न कर सकेंगी ये दूरियों के दरमियाँ!

हम मिलते रहे हैं हर पल यूँ दूरियों के दरमियाँ,
रीत ईक नई बनती गई दूरियों के दरमियाँ,
समय यूँ गुजरता प्रतिपल इन दूरियों के दरमियाँ !

बदल रहा ये रूप ये रंग इस समय के दरमियाँ,
न बदले हैं हम कभी इस समय के दरमियाँ,
वक्त लेता रहा करवटें तुम संग समय के दरमियाँ!

ये दूरियों के दायरे रहे उम्र भर तेरे मेरे दरमियाँ,
वक्त कभी न भर सका दूरियों के दरमियाँ,
मेरे हृदय में रहे सदा तुम इन दूरियों के दरमियाँ!

Tuesday 10 May 2016

रफ्ता रफ्ता वजूद

रफ्ता रफ्ता खो चुके हैं इस जहाँ की भीड़ में हम!

गुजर चुके है यहाँ कई महफिलों से हम,
खुद का पता ही कहीं अब भूल चुके हैं हम,
यूँ सफर तमाम कट गई है रफ्ता रफ्ता,
अब खुद का ही वजूद ढूंढ़ने में लगे हैं हम।

बड़ी ही हसीन शाम महफिलों के मगर,
अब दिल है मेरा खोया हुआ न जाने किधर,
यूँ वक्त तमाम कट गई हैं रफ्ता रफ्ता,
अब इस दिल का वजूद ढूंढ़ने में लगे हैं हम।

ये महफिलें है फकत यहाँ बेकाम की,
दिल की राहों से यहाँ दूर अब हो चले हैं हम,
यूँ उम्र तमाम कट गई है रफ्ता रफ्ता,
अब जिन्दगी का ही वजूद ढूंढ़ने में लगे हैं हम।

रफ्ता रफ्ता गुजर रहे हैं इन अंजान राहों से हम!

Sunday 10 April 2016

उम्र के साथी

आ गई अब उम्र वो, तलाशता हूँ जिन्दगी को,
उम्र की इस दहलीज पे, साथ मेरे कोई तो हो।

कभी मगन हो लिए हम, खुद अपने ही आप में,
फिर कभी तलाशता हूँ, खुद में अपने आप को।

कहते हैं जिन्हे अपना हम, दिखते हैं वो दूर से,
पास अपनी इक जिन्दगी, क्युँ रहें हम मायूश से।

जिन्दगी की प्यारी सी धुन, हर घड़ी बजती रहे,
साए सी तुम संग-संग रहो, जिन्दगी चलती रहे।

तन्हा हैं जो इस सफर में, हम उनकी जिन्दगी बनें,
कुछ लम्हें जिन्दगीे, संग उनके भी हम गुजार लें।

खिल-खिलाएगी ये जिन्दगी, जहाँ तेरे कदम पड़े,
तलाशेंगी ये तुमको खुशी, उठकर आप कहाँ चले।

उम्र गुजर जाएगी ये, जिन्दगी के आस-पास ही,
साथी तेरे कहलाएंगे ये, इस जिन्दगी के बाद भी।

Saturday 9 April 2016

इस सफर की मंजिल

उम्र के सफर की इस पड़ाव पर कौन सी मंजिल है ये?

कट चुकी आधी सफर, सिर्फ आधी ही बची,
ये किस मुकाम पर ले चली, आज मुझको ये जिन्दगी,
ये सफर है कौन सी, मंजिल है क्यों अंजान सी?

क्या अंधेरा ही मिलेगा, जिन्दगी की मंजिलो पर?
रुक कर सोचता यही है मन, जीवन के इस पड़ाव पर,
हासिल अनुभव हजार, पर मंजिलों से क्युँ बेखबर?

संग ले चलूँ मै कुछ दिए,अंजानी उन मंजिलों पर,
कुछ उजाले भर सकुँ मैं, इक दीप बन के मंजिलों पर,
अंजानी रही है ये सफर, मंजिल न हो अंजानी मगर!

उम्र के इस सफर की, हमसफर मेरी मंजिल वही,
हमसफर की तलाश में, भटकते रहे सारी उम्र युँ हीं,
गुजरुँ इन राहों से मैं, रह जाऊँ यादों में आपकी!

मिल सकी न इक नजर

सजल नैनों से सजदा करता रहा मैं उम्र भर...........!

बुनते रहे धागे उम्मीदों के युँ ही उम्र भर,
झुकते रहे सजदे में उनके, सर युुँ ही उम्र भर,
इक झलक पाने को बैठे रहे, सजदे किए युँ उम्र भर,
आह निकली! पर मिल सकी ना बस तुम्हारी इक नजर!

इबादत बन सकी ना, सजदों का वो सफर,
तन्हाईयों मे उम्र गुजरी, खामोशियों में लम्बा सफर,
पूछ लूँगा मैं खुदा से मिल गया वो मुझको अगर,
आह निकली! पर मिल सकी ना क्युँ तुम्हारी इक नजर!

अब सजल हो चले हैं नैनों के अधखुले डगर,
बह रहे अविरल जलधार, डूबे हुए अब शामो शहर,
इन सजल नैनों से सजदा, युँ ही करता रहा मैं उम्र भर,
आह निकली! पर मिल सकी ना बस तुम्हारी इक नजर!

Wednesday 16 March 2016

उम्र के किस कगार पर जिन्दगी

आहिस्ता आहिस्ता उम्र की किस कगार पर,
खीच लायी है मुझको ये जिन्दगी!

यौवन का शिला बर्फ सा गल गया,
चाहतों का पंछी तोड़ पिंजड़ा उड़ गया,
आशाओं का दीपक बिन तेल बुझ रहा,
जिन्दगी के किस मुकाम पर आज मैं आ गया।

आहिस्ता आहिस्ता पिघलता रहा ये आसमाँ,
बूँदों सी बरसती रही ये जिन्दगी।

जोश पहले सी अब रही नहीं,
उमंग दिलों में अब कहीं दिखती नहीं,
उन्माद मन की कहीं गुम सी गई,
कुछ कर गुजरने की तमन्ना दिल मे ही दब रही ।

आहिस्ता आहिस्ता कट रहा धूँध का ये धुआँ,
राख बन कर सिमट रही ये जिन्दगी।

Thursday 25 February 2016

बूँद एक स्पर्श कर गई

बूँद एक स्पर्श कर गई,
रूह के अन्त:स्थ को छू गई,
स्निग्ध मन के तार छेड़ गई,
इक रेशमी एहसास दे गई।

बूँद वो नन्ही सी कितनी,
सुकोमल पंखुड़ी सी जितनी,
क्षण भर की ही उम्र उसकी,
इच्छाएँ भरी मन में कितनी।

टूट टूट बिखरती धरा पर,
बूँद बूँद आह्लादित होती पर,
कलियों संग बूँद रही निखर,
खुले तृण के केश हो प्रखर।

बूँद बूँद मिल बनती सरिता,
अस्तित्व विलीन कर खुश होती,
मिट जाती प्रकृति प्रेम में वो,
बूँद बूँद अब लब्जों की कविता।

Saturday 26 December 2015

उम्र के इस पड़ाव पर

मानव मन की चाह होती असीमित,
ईच्छाएँ पैदा लेती इनमें अपरिमित,
चाहता ये ब्रम्हांड की सीमा छू लेना,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाता।

सोचता था बरगद सा विशाल बनूँगा,
दरख्तों सी होगी शख्सियत हमारी,
विशाल कंधों पर होगा युग का जुआ,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाता ।

बरगद जिसकी है असंख्य मजबूत बाहें,
शाखाएँ फैली चहुँ दिशा में लिए छाँव घने,
शख्सियत सागर पटल सी लंबी उम्र लिए,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाया ।

ढ़लते उम्र के इस पड़ाव पर सोचता,
चंचल पखेरू मन अधीर सा होता जाता,
हाथों से रेत सी फिसलती जाती वक्त,
और हासिल ना कुछ भी कर पाता।

ईश्वर ने दिया है बस ईक जीवन,
सांसें भी दी है बस गिनतियों की,
करनी थी आशाएँ सब पूरी इनमें,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाया ।

चाहता हूँ समय ले फिर से करवट,
उलटी दिशा में फिर लौट चले ये,
कर सकुँ शुरुआत पुनः जीवन का,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाता ।

समय बलवान महत्ता इसकी तू पहचान,
कर कुछ ऐसा, बरगद से भी हो तू महान,
शख्सियत में तेरे, जड़ जाएं चांद-सितारे,
सागर पटल भी आएँ, छूने चरण तुम्हारे।