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Friday, 1 January 2021

नव-परिचय

हाथ गहे, अब सोचे क्या! ओ अपरिचित!
माना, अपरिचित हैं हम-तुम,
पर, ये कब तक?
कुछ पल, या कि सदियों तक!

देखो ना, तुम आए जब, द्वार खुले थे सब!
सब्र के बांध, टूट चुके थे तब,
अ-परिचय कैसा?
नाहक में, ये संशय कब तक?

आओ बैठो, शंकित मन को, धीर जरा दो!
दुविधाओं को, तीर जरा दो,
आस जरा ले लो!
संशय में, पीड़ पले कब तक?

अब सोचे क्या, नव-परिचय की यह बेला?
दो हाथों की, इक गाँठ बना,
इक विश्वास जगा,
ये सांस चले, संग सदियों तक!

हर्ष रहे, नव-वर्ष मनें, परिचय की गाँठ बंधे,
चैन धरे, रहे फिर हाथ गहे,
कोई नवताल सुनें,
कुछ पल क्या? सदियों तक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 14 July 2020

स्वप्न हरा भरा

है स्वप्न मेरा, जागा-जागा, हरा-भरा!

अर्ध-मुकम्मिल से, कुछ क्षण,
थोड़ा सा,
आशंकित, ये मन,
पल-पल,
बढ़ता,
इक, मौन उधर,
इक, कोई सहमा सा, कौन उधर?
कितनी ही शंकाएँ,
गढ़ता,
इक व्याकुल मन,
आशंकाओं से, डरा-डरा,
वो क्षण,
भावों से, भरा-भरा!

है स्वप्न मेरा, जागा-जागा, हरा-भरा!

शब्द-विरक्त, धुंधलाता क्षण,
मौन-मौन,
मुस्काता, वो मन,
भाव-विरल,
खोता,
इक, हृदय इधर,
कोई थामे बैठा, इक हृदय उधर!
गुम-सुम, चुप-चुप,
निःस्तब्ध,
निःशब्द और मुखर,
उत्कंठाओं से, भरा-भरा,
हर कण,
गुंजित है, जरा-जरा!

है स्वप्न मेरा, जागा-जागा, हरा-भरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)