Thursday, 19 November 2020

कैद

अब, कैद हो चुके तुम, धुँधले से नैनों में!

भटकोगे, अन्तर्मन के इस सूने वन में, 
कल्पनाओं के दारुण प्रांगण में,
क्या रह पाओगे?

पहले तो, बनती थी, इक परछाईं सी,
कभी, पल-भर में गुम होते थे!
कभी तुम होते थे!

तेरे ही सपने, पलते थे उड़ते-उड़ते से,
पर, डरता था, कुछ कहने से,
उड़ते सपनों से!

कैद हो चली, तेरे ही यादों की परछाईं,
लेकिन, आँखें हैं अब धुंधलाई,
जा पाओगे कैसे!

रोकेंगी तुझको, तेरी यादों के अवशेष,
नैनों का, धुंधलाता ये परिवेश,
जा ना पाओगे!

इन्हीं अवशेषों के मध्य, बजती हुई दूर,
गुनगुनाती सी, होगी इक धुन,
वही, शेष हूँ मैं!

गाते कुछ पल होंगे, बीते वो कल होंगे,
शायद, एकाकी ना पल होंगे,
रुक ही जाओगे!

या भटकोगे, अन्तर्मन के सूने से वन में, 
यातनाओं के, दारुण प्रांगण में,
कैसे रह पाओगे?

अब, कैद हो चुके तुम, धुँधले से नैनों में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

19 comments:

  1. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 20-11-2020) को "चलना हमारा काम है" (चर्चा अंक- 3891) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।

    "मीना भारद्वाज"

    ReplyDelete
  2. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" शुक्रवार 20 नवंबर 2020 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    ReplyDelete
  3. इन्हीं अवशेषों के मध्य, दूर जाती हुई,
    गुनगुनाती, इक धुन की तरह,
    वहीं शेष हूँ मैं! ...।बहुत ख़ूब..।सुंदर अभिव्यक्ति..।

    ReplyDelete
  4. या भटकोगे, अन्तर्मन के सूने से वन में,
    यातनाओं के, दारुण प्रांगण में,
    कैसे रह पाओगे?

    अब, कैद हो चुके तुम, धुँधले से नैनों में!


    बहुत अच्छी कविता के लिए साधुवाद पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा जी 🙏
    मेरे ब्लॉग पर आपका सदैव स्वागत है।

    ReplyDelete
    Replies
    1. आदरणीया, बेहद ही प्रेरक प्रतिक्रिया पाकर मुदित हूँ। अवश्य ही।

      Delete
  5. हृदयस्पर्शी...
    बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना...🙏

    ReplyDelete
  6. Replies
    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय ओंकार जी।

      Delete