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Sunday, 4 July 2021

आशियाँ

यही चमन, बस यही आशियाँ मेरा,
यहीं सांझ, यहीं सवेरा!

भटक जाता हूँ, कभी...
उड़ जाता हूँ, मानव जनित, वनों में,
सघन जनों में, उन निर्जनों में,
है वहाँ, कौन मेरा?

यही चमन, बस यही आशियाँ मेरा,
यही सांझ, यहीं सवेरा!

यहाँ बुलाए, डाल-डाल,
पुकारे पात-पात, जगाए हर प्रभात,
स्नेहिल सी लगे, हर एक बात,
है यही, जहान मेरा!

यही चमन, बस यही आशियाँ मेरा,
यही सांझ, यहीं सवेरा!

सुखद कितनी, छुअन,
छू जाए मन को, बहती सी ये पवन, 
पाए प्राण, यहीं, निष्प्राण तन,
मेरे साँसों का ये डेरा!

यही चमन, बस यही आशियाँ मेरा,
यही सांझ, यहीं सवेरा!

डर है, आए न पतझड़,
पड़ न जाए, गिद्ध-मानव की नजर,
उजड़े हुए, मेरे, आशियाने पर,
अधूरा है अनुष्ठान मेरा!

यही चमन, बस यही आशियाँ मेरा,
यही सांझ, यहीं सवेरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 19 November 2020

कैद

अब, कैद हो चुके तुम, धुँधले से नैनों में!

भटकोगे, अन्तर्मन के इस सूने वन में, 
कल्पनाओं के दारुण प्रांगण में,
क्या रह पाओगे?

पहले तो, बनती थी, इक परछाईं सी,
कभी, पल-भर में गुम होते थे!
कभी तुम होते थे!

तेरे ही सपने, पलते थे उड़ते-उड़ते से,
पर, डरता था, कुछ कहने से,
उड़ते सपनों से!

कैद हो चली, तेरे ही यादों की परछाईं,
लेकिन, आँखें हैं अब धुंधलाई,
जा पाओगे कैसे!

रोकेंगी तुझको, तेरी यादों के अवशेष,
नैनों का, धुंधलाता ये परिवेश,
जा ना पाओगे!

इन्हीं अवशेषों के मध्य, बजती हुई दूर,
गुनगुनाती सी, होगी इक धुन,
वही, शेष हूँ मैं!

गाते कुछ पल होंगे, बीते वो कल होंगे,
शायद, एकाकी ना पल होंगे,
रुक ही जाओगे!

या भटकोगे, अन्तर्मन के सूने से वन में, 
यातनाओं के, दारुण प्रांगण में,
कैसे रह पाओगे?

अब, कैद हो चुके तुम, धुँधले से नैनों में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 27 April 2020

हर बार - (1200वाँ पोस्ट)

बाकी, रह जाती हैं, कितनी ही वजहें,
कितने ही सफहे,
कुछ, लिखने को हर बार!

कभी, चुन कर, मन के भावों को,
कभी, सह कर, दर्द से टीसते घावों को,
कभी, गिन कर, पाँवों के छालों को,
या पोंछ कर, रिश्तों के जालों को,
या सुन कर, अनुभव, खट्ठे-मीठे, 
कुछ, लिखता हूँ हर बार!

फिर, सोचता हूँ, हर बार,
शायद, फिर से ना दोहराए जाएंगे, 
वो दर्द भरे अफसाने,
शायद, अब हट जाएंगे, 
रिश्तों से वो जाले,
फिर न आएंगे, पाँवों में वो छाले,
उभरेगी, इक सोंच नई,
लेकिन! हर बार,
फिर से, उग आते हैं,
वो ही काँटें,
वो ही, कटैले वन,
मन के चुभन,
वो ही, नागफनी, हर बार!
अधूरी, रह जाती हैं,
लिखने को,
कितनी ही बातें, हर बार!

फिर, चुन कर, राहों के काँटों को,
फिर, पोंछ कर, पाँवों से रिसते घावों को,
फिर, बुन कर, सपनों के जालों को,
देख कर, रातों के, उजालों को,
या, तोड़ कर, सारे ही मिथक,
कुछ, लिखता हूँ हर बार!

फिर भी, रह जाती हैं कितनी वजहें,
कितने ही सफहे,
कुछ, लिखने को हर बार!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 28 July 2019

काश के वन

करूं लाख जतन, उग आते है, काश के वन!

ललचाए मन, अनचाहे से ये काश के वन,
विस्तृत घने, अपरिमित काश के वन,
पथ भटकाए, मन भरमाए, ये दूर कहीं ले जाए!
"काश! ऐसा होता" मुझसे ही कहलाए,
कैसा है मन, क्यूं उग आते है, काश के वन!

कब होता है सब वैसा, चाहे जैसा ये मन,
वश में नही होते, ये आकाश, ये घन,
मुड़ जाए कहीं, उड़ जाए कहीं, पड़ जाए कहीं!
सोचें कितना कुछ, हो जाता है कुछ,
उग आते हैं मन में, फिर ये, काश के वन!

बदली है कहाँ, लकीरें इन हाथों की यहाँ,
अपनी ही साँसें, कोई गिनता है कहाँ,
विधि का लेखा, है किसने देखा, किसने जाना!
साँसों की लय का, अपना ही ताना,
संशय में, उग आते हैं बस, काश के वन!

काश! दिग्भ्रमित न करते, ये काश के वन,
दिग्दर्शक बन उगते, ये काश के वन,
होता फिर बिल्कुल वैसा, कहता जैसा ये मन!
न पछताते, न हाथों को मलते हम,
न उगते, न ही भटकाते, ये काश के वन!

करूं लाख जतन, उग आते है, काश के वन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 28 October 2018

पथ के आकर्षण

दामन में कब आते हैं!
पथ के आकर्षण,
पीछे पथ में ही रह जाते हैं .....

इक पथ संग-संग, साथ चले थे वो पल,
मन को जैसे, बांध चले थे वो पल,
बस हाथों मे कब, कैद हुए हैं वो पल,
वो आकर्षण, मन-मानस में बस जाते हैं!
सघन वन में, ये खींच लिए जाते हैं....

दामन में कब आते हैं!
पथ के आकर्षण,
पीछे पथ में ही रह जाते हैं .....

सम्मोहन था, या कोई जादू था उस पल,
मन कितना, बेकाबू था उस पल,
जाम कई, प्यालों से छलके उस पल,
सारा जाम, कहाँ बूँद-बूँद हम पी पाते हैं!
प्यासे है जो, प्यासे ही रह जाते हैं....

दामन में कब आते हैं!
पथ के आकर्षण,
पीछे पथ में ही रह जाते हैं .....

अब नजरों से, ओझल हुए है वो पल,
कुछ बोझिल, कर गए हैं वो पल,
आगे हूँ मैं, पथ में ही छूटे हैं वो पल,
बहते धार, वापस हाथों में कब आते हैं!
कुछ मेरा ही, मुझमें से ले जाते है.....

दामन में कब आते हैं!
पथ के आकर्षण,
पीछे पथ में ही रह जाते हैं .....

Thursday, 27 September 2018

मन के आवेग

आवेग कई रमते इस छोटे से मन में,
जैसे बूँदें, बंदी हों घन में....

गम के क्षण, मन सह जाता है,
दुष्कर पल में, बह जाता है,
तुषारापात, झेल कर आवेगों के,
विकल हो जाता है.....

मन कोशों दूर निकल जाता है,
फिर वापस मुड़ आता है,
बंधकर आवेगों में, रम जाता है,
वहीं ठहर जाता है...

प्रवाह प्रबल मन के आवेगों में,
कहीं दूर बहा ले जाता है,
कण-कण प्लावित कर जाता है,
बेवश कर जाता है....

गर वश होता इन आवेगों पर,
धीर जरा मन को आता,
खुद को ले जाता निर्जन वन में,
चैन जहाँ रमता है...

आवेग कई रमते इस छोटे से मन में,
जैसे बूँदें, बंदी हों घन में....

Wednesday, 8 August 2018

पड़ाव

स्नेहिल से कितने पड़ाव, और तय करेंगे हम?

चलो तय कर चुके, यह भी पड़ाव हम,
अब न जाने, ले जाए कहाँ ये बढते कदम!
भले ही ये फासले, कुछ हो चले हैं कम,
गंतव्य की ओर, जरा बढ़ चले हैं गम,
छोड़ आए है पीछे, यादों के वो घनेरे घन!

डोर रिश्तों के ये, खींचते हैं मेरे कदम,
यूं ही पड़ाव पर, रिश्तों में बंध गये थे हम!
भावनाओं में, थोड़े से बह गए थे हम,
तोड़ूंगा कैसे, ये भावनाओं के बंधन,
उम्र भर खीचेंगे, स्नेह के ये प्यारे से वन!

नये से पड़ाव पर, किसी से जुड़ेंगे हम,
अंजाने से शक्ल में, जब बेगाने से होंगे हम!
बरस ही जाएंगे, यादों के वो घनेरे घन,
कुछ पल भीग लेंगे, उन राहों पे हम,
मुड़-मुड़ के पीछे, यूं ही देखा करेंगे हम!

स्नेह के मोहक पड़ाव, कैसे छोड़ पाएंगे हम?

Thursday, 22 June 2017

त्यजित

त्यजित हूँ मै इक, भ्रमित हर क्षण रहूँगा इस प्रेमवन में।

क्षितिज की रक्तिम लावण्य में,
निश्छल स्नेह लिए मन में,
दिग्भ्रमित हो प्रेमवन में,
हर क्षण जला हूँ मैं अगन में...
ज्युँ छाँव की चाह में, भटकता हो चातक सघन वन में।

छलता रहा हूँ मैं सदा,
प्रणय के इस चंचल मधुमास में,
जलता रहा मैं सदा,
जेठ की धूप के उच्छवास में,
भ्रमित होकर विश्वास में, भटकता रहा मैं सघन घन में।

स्मृतियों से तेरी हो त्यजित,
अपनी अमिट स्मृतियों से हो व्यथित,
तुम्हे भूलने का अधिकार दे,
प्रज्वलित हर पल मैं इस अगन में,
त्यजित हूँ मै इक, भ्रमित हर क्षण रहूँगा इस प्रेमवन में।

भ्रमित रक्तिम लावण्यता में,
श्वेत संदली ज्योत्सना में,
शिशिर के ओस की कल्पना में,
लहर सी उठती संवेदना में,
मधुरमित आस में, समर्पित कण कण मैं तेरे सपन में।

त्यजित हूँ मै इक, भ्रमित हर क्षण रहूँगा इस प्रेमवन में।