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Tuesday, 14 July 2020

स्वप्न हरा भरा

है स्वप्न मेरा, जागा-जागा, हरा-भरा!

अर्ध-मुकम्मिल से, कुछ क्षण,
थोड़ा सा,
आशंकित, ये मन,
पल-पल,
बढ़ता,
इक, मौन उधर,
इक, कोई सहमा सा, कौन उधर?
कितनी ही शंकाएँ,
गढ़ता,
इक व्याकुल मन,
आशंकाओं से, डरा-डरा,
वो क्षण,
भावों से, भरा-भरा!

है स्वप्न मेरा, जागा-जागा, हरा-भरा!

शब्द-विरक्त, धुंधलाता क्षण,
मौन-मौन,
मुस्काता, वो मन,
भाव-विरल,
खोता,
इक, हृदय इधर,
कोई थामे बैठा, इक हृदय उधर!
गुम-सुम, चुप-चुप,
निःस्तब्ध,
निःशब्द और मुखर,
उत्कंठाओं से, भरा-भरा,
हर कण,
गुंजित है, जरा-जरा!

है स्वप्न मेरा, जागा-जागा, हरा-भरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 23 June 2020

जिज्ञासा

रह जाए जैसे, जिज्ञासा!
रह गए हो तुम, वैसे ही, जरा सा!

नजर में समेटे, दिव्य आभा,
मुखर, नैनों की भाषा,
चुप-चुप, बड़े ही, मौन थे तुम,
न जाने, कौन थे तुम?

हौले-हौले, प्रकंपित थी हवा,
विस्मित, थे क्षण वहाँ,
कुछ पल, वहीं था, वक्त ठहरा,
जाने था, कैसा पहरा!

हैं तेज कितने, वक्त के चरण,
न ओढ़े, कोई आवरण,
पर रुक गए थे, याद बनकर,
जाने, कैसे वक्त उधर!

थे शामिल, तुम्हीं हर बात में,
मुकम्मिल, जज्बात में,
उलझे, सवालों में तुम ही थे,
न जाने, तुम कौन थे!

उठ खड़े थे, प्रश्न अन-गिनत,
थी, सवालों की झड़ी,
हर कोई, हर किसी से पूछता,
न जाने, किसका पता!

गर जानता, तुझको जरा सा,
संजोता, एक आशा,
भटकता न यूँ, निराश होकर,
न जाने, किधर-किधर!

रह जाए जैसे, जिज्ञासा!
रह गए हो तुम, वैसे ही, जरा सा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)