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Sunday, 5 April 2020

छू लेगी याद मेरी

जो होंगे, कुछ पल, तेरे सूने,
जब बिछड़ जाओगे, खुद से तुम,
तो आ जाएंंगी, मेरी यादें, 
अकले मेें, तुझे छूने!

संवर जाओगे, तुम तब भी,
निहारोगे, कोई दर्पण,
बालों को, सँवारोगे,
शायद, भाल पर, इक बिन्दी लगा लोगे,
सम्हाल कर, जरा आँचल,
सूरत को, निहारोगे,
फिर, तकोगे राह, 
तुम मेरी....

जो होंगे, कुछ पल, तेरे सूने!

अन-गिनत प्रश्न, करेगा मन!
उलझाएगा, सवालों में,
खोकर, ख़्यालों में,
शायद, आत्म-मंथन, तब तुम करोगे,
खुद को ही, हारोगे,
फिर, चुनोगे तुम,
राह मेरी....

जो होंगे, कुछ पल, तेरे सूने,
जब बिछड़ जाओगे, खुद से तुम,
तो आ जाएंंगी, मेरी यादें, 
अकले मेें, तुझे छूने!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 11 November 2018

खुद लिखती है लेखनी

मैं क्या लिखूं! खुद लिख पड़ती है लेखनी....

गीत-विहग उतरे जब द्वारे,
भीने गीतों के रस, कंठ में डारे,
तब बजते है, शब्दों के स्तम्भ,
सुर में ढ़लते हैं, शब्द-शब्द!

मैं क्या लिखूं! फिर खुद लिखती है लेखनी...

भीगी है जब-जब ये आँखें,
अश्रुपात कोरों से बरबस झांके,
तब डोलते हैं, शब्दों के स्तम्भ,
स्खलित होते हैं, शब्द-शब्द!

मैं क्या लिखूं! फिर खुद लिखती है लेखनी...

समुंदर की अधूरी कथाएं,
लहरें, तट तक कहने को आएं,
तब टूटते हैं, शब्दों के स्तम्भ,
बिखर जाते हैं, शब्द-शब्द!

मैं क्या लिखूं! फिर खुद लिखती है लेखनी...

Saturday, 11 November 2017

पहाड़ों में

उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....

विशाल होकर भी कितनी शालीन,
उम्रदराज होकर भी नित नवीन,
एकांत में रहकर भी कितनी हसीन,
मुखर मौन, भाव निरापद और संज्ञाहीन....

उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....

ताप में रहकर भी कितनी शीतल,
शांत रहकर भी लगती चंचल,
दरिया बनकर बह जाती कलकल,
प्रखर सादगी, उदार चेतना और प्रांजल......

उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....

न ही कोई द्वेष, न ही कोई दुराव,
सबों के लिए एक सम-भाव,
न आवश्यकता, न कोई अभाव,
शिखर उत्तुंग, शालीन और विनम्रभाव.......

उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....
-------------------------------------------------------------------सम्मान@
*"राष्ट्रीय सागर"* में प्रकाशित मेरी कविता *"उन पहाड़ों मे"अंक देखना हो तो avnpost.com ke epaper पर देखें। या सीधे epaperrashtriyasagar.com पर *पेज 6* पर देखें।

यह लिंक भी देखें .......   ----   पहाड़ों पे   ----

Monday, 11 April 2016

अर्थ

इंतजार.....!

कैसा इन्तजार?
अर्थहीन हैं ....
इंतजार की बातें सभी!

हर शख्स....!

तन्हा यहाँ,
अब किसी को
किसी का इंतजार नहींं!

हर लम्हा ....!

जुदा है यहाँ ....
दूसरे लम्हे से.........
लम्हा जीता खुद में ही!

पल......!

आने वाला पल...
किसी का
तलबगार नहीं!

अर्थ....!

ढू़ढ़ता है हर पल,
खुद से खुद मेंं....
बस अपने आप में ही!

Monday, 22 February 2016

चश्मा बदल के देखिए

चश्मा बदल के देखिए, है दुनियाँ अलग सी यहाँ,
हर शख्स निराला जगत में, हर शख्स अनोखा यहाँ,
कमी तुझको दिखेगी कहीं, शायद तुझ में ही यहाँ।

तू होगा ग्यानी बड़ा, गुरूर होगा खुदपर तुझको,
जग में भरे पड़े एक से एक नही मालूम तुझको,
चश्में की आड़ से निकलकर तू देख खुद को।

ग्यान, विद्या, धन, सम्मान, धीरज, सहनशीलता,
गुण हैं ये सभी उस विवेकशील शौम्य मानव के,
बदलते नही वो चश्मा तस्वीर नई देखने को।