एकाकी से इस वेला में, मन कितना अकेला है...
ये रात है ! है निर्जन सा ये दूसरा पहर....
नीरवता है फैली सी, बिखरी है खामोशी,
चुप सी है रजनीगंधा, गहरी सी ये उदासी,
चुपचाप बुझ-बुझ कर, जलते वो दीपक,
गुमसुम चुप-चुप, शांत बैठा वो शलभ...
सूनापन है व्याप्त, बस यादों का मेला है....
एकाकी से इस वेला में, मन कितना अकेला है...
बदराए से नभ पर, एकाकी सा इक तारा,
नीरव सी इन रातों मे, इक वो ही है बेचारा,
जागा है बस वो ही, सो रहा ये जग सारा,
वो किसको याद करे, उसका कौन सहारा,
लुटाकर सब कुछ, खुद को ही वो हारा...
एकाकी सी इन राहों में, शायद वो भूला है!
एकाकी से इस वेला में, मन कितना अकेला है...
रातों कें साए में, व्याप रहा क्यूं सूनापन?
यादों के इस घन में, कैसा ये एकाकीपन?
पहरे हैं यादों के, मंडराते से यादों के घन,
फिर क्यूं तारे, गिनता है ये निशाचर मन?
निशा पहर किसने, गीत विरह के छेड़ा...
कैसी सूनी है रात, तन्हा कितनी ये वेला है!
एकाकी से इस वेला में, मन कितना अकेला है...
ये रात है ! है निर्जन सा ये दूसरा पहर....
नीरवता है फैली सी, बिखरी है खामोशी,
चुप सी है रजनीगंधा, गहरी सी ये उदासी,
चुपचाप बुझ-बुझ कर, जलते वो दीपक,
गुमसुम चुप-चुप, शांत बैठा वो शलभ...
सूनापन है व्याप्त, बस यादों का मेला है....
एकाकी से इस वेला में, मन कितना अकेला है...
बदराए से नभ पर, एकाकी सा इक तारा,
नीरव सी इन रातों मे, इक वो ही है बेचारा,
जागा है बस वो ही, सो रहा ये जग सारा,
वो किसको याद करे, उसका कौन सहारा,
लुटाकर सब कुछ, खुद को ही वो हारा...
एकाकी सी इन राहों में, शायद वो भूला है!
एकाकी से इस वेला में, मन कितना अकेला है...
रातों कें साए में, व्याप रहा क्यूं सूनापन?
यादों के इस घन में, कैसा ये एकाकीपन?
पहरे हैं यादों के, मंडराते से यादों के घन,
फिर क्यूं तारे, गिनता है ये निशाचर मन?
निशा पहर किसने, गीत विरह के छेड़ा...
कैसी सूनी है रात, तन्हा कितनी ये वेला है!
एकाकी से इस वेला में, मन कितना अकेला है...