ऐ उम्र, जरा ठहर! ऐसी भी क्या है जल्दी!
अब तक बीता ये जीवन व्यर्थ ही,
अर्थ जीवन का मिला नहीं,
कुछ अर्थपूर्ण करना है अभी-अभी,
ठहर ना, तू बीत रही क्यूँ जल्दी-जल्दी?
अभी खुल कर हमने जिया नहीं,
मन का कुछ भी किया नहीं,
आई थी तू भी तो बस अभी-अभी,
फिर जाने की, क्यूँ ऐसी भी है जल्दी?
पथ कंटक वाली ही सभी मिली,
फूलों सी राहों पर चला नही,
पथ फूलों की दिखी है अभी-अभी,
यहीं रुक जा, जाने की क्या है जल्दी?
जितनी भी पी, वो थी गरल भरी,
अधरों से ये अमृत विरल रही,
चाहत पीने की जागी अभी-अभी,
जरा ठहर, जाने की ऐसी क्या जल्दी?
रिश्तों की कितनी गाठें खुली नहीं,
मन की गाठें भी यूँ रही बंधी,
गांठें चाहत की खुली अभी-अभी,
फिर जाने की, ऐसी भी क्या है जल्दी?
ऐ उम्र, तूने उड़ान ये कैसी भरी?
पल में ही सदियाँ ये गुजर गई,
ख्वाहिश जीनै की थी अभी-अभी,
फिर क्यूँ, तुझे जाने की ऐसी है जल्दी?
कभी हाथों में तो तू आया ही नहीं,
संग चला पर साया भी नहीं,
स्पर्श भर कर गया तू अभी-अभी,
तू बैठ जरा, यूँ बीत न तू जल्दी-जल्दी!
ऐ उम्र, जरा ठहर! ऐसी भी क्या है जल्दी!