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Sunday, 21 July 2019

मैला मन

मैला ये तन ही क्यूं?
शायद!
ये अभिमानी मन भी हो!

वहम है या इक भ्रम है, हर इक मन,
है श्रेष्ठ वही इक, बाकि सारे हैं धूल-कण,
भूला है, शायद इस भूल-भुलावे में,
ये अभिमानी मन!

माटी के पुतले हम, है माटी का तन,
गुण-अवगुण दोनों, हैं गुंधे माटी के संग,
न जाने, फिर पलता किस भ्रम में,
ये अभिमानी मन!

कर के लाख जतन, साफ किए तन,
दोषी है खुद, पर करता है दोषा-रोपण,
झांके ना, खुद को ही इस दर्पण में,
ये अभिमानी मन!

औरों की गलती पर, हँसता है जग,
भूल करे जब खुद, होता है राग अलग,
न जाने, भटका किस संगत में,
ये अभिमानी मन!

भ्रम में तन ही क्यूं?
शायद!
ये अभिमानी मन भी हो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday, 21 November 2017

हाँ मनुष्य हूँ

तुझे कितनी बार बताऊँ, हाँ मैं ही मनुष्य हूँ.....!

मैं सर्वाहारी, स्तनपयी, होमो सेपियन्स हूँ!
निएंडरथल नहीं, क्रोमैगनाॅन मानव हूँ,
अमूर्त्त सोचने, ऊर्ध्व चलने, बातों में सक्षम हूँ,
तात्विक प्रवीणताएँ सारी हैं मुझमे,
जैव विवर्तन में श्रेष्ठ हूँ, हाँ, हाँ, मैं मनुष्य हूँ....!

तुझे कितनी बार बताऊँ, हाँ मैं ही मनुष्य हूँ.....!

योनियों मे श्रेष्ठ हूँ, मानव हूँ, कुलश्रेष्ठ हूँ,
84 लाख योनियों में बस 4 लाख हूँ,
अब कैसे समझाऊँ, किस तरह तुझको बतलाऊँ,
ईश्वर की संकल्पना में, इक मैं भी हूँ,
हाँ, हाँ, हाँ, मैं झूठा हूँ, पर मै ही मनुष्य हूँ....!

तुझे कितनी बार बताऊँ, हाँ मैं ही मनुष्य हूँ.....!

सुन लो, कुछ अपने मन में तुम भी बुन लो,
योनि, कितनी इस धरती पर सुन लो,
9 लाख जलचर, 20 लाख वृक्ष, 11 लाख कीड़े,
10 लाख पक्षी, 30 लाख जंगली पशु,
बस 4 लाख मनुष्य, हाँ, हाँ, यही मनुष्य हूँ....!

तुझे कितनी बार बताऊँ, हाँ मैं ही मनुष्य हूँ.....!

पहनता हूँ कपड़े, सर्व विकसित जीव हूँ!
अपने अनुकूल परिवेश कर लेता हूँ,
कुछ खिलवाड़, कुछ दुश्वार प्रकृति से करता हूँ,
स्वार्थवश मस्तिष्क का दुरुपयोग भी,
हाँ, हाँ, हाँ, मैं दुष्ट हूँ, पर मै ही मनुष्य हूँ....!

तुझे कितनी बार बताऊँ, हाँ मैं ही मनुष्य हूँ.....!