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Saturday, 13 August 2022

घन


हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में,
यूं जैसे, घन बरसे सावन में!

पहले छा जाना, मन को भा जाना,
धुंधला सा, ये गहरा आंचल, फिर फैलाना,
उतर आना, इक बदली सा आंगन में!

हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में!

यूं भर लेना नैनों में थोड़ा काजल,
ज्यूं रात, मचल कर,  गाती हो एक ग़ज़ल,
और साज कहीं, बजते हों उपवन में!

हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में!

फिर चाहे तू कहना मन की व्यथा,
या रखना, मन की बातें, मन में ही सर्वथा,
उतर आना, नीर सरीखे, नयनन में!

हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में!

सूना ये आंगन, संवर जाए थोड़ा,
सरगम की छमछम से, भर जाए ये जरा,
बज उठे शंख कई, इस सूनेपन में!

हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में,
यूं जैसे, घन बरसे सावन में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 4 October 2021

सूनी ये वादियां

सूनी पड़ी ये वादियां, सुना दो, आलाप वो ही!
या, फिर गुनगुना दो, प्रणय के गीत कोई!

अक्सर ओढ़ कर, खामोशियां,
लिए अल्हड़, अनमनी, ऊंघती, अंगड़ाइयां,
बिछा कर, अपनी ही परछाईयां,
चल देते हो, कहां!

सूनी पड़ी ये वादियां, सुना दो, आलाप वो ही!

पल वो क्या, जो चंचल न हों,
प्रणय हों, पर अनुनय-विनय के पल न हों,
संग हो, पर ये कैसी तन्हाईयां,
खोए हो, तुम कहां!

सूनी पड़ी ये वादियां, सुना दो, आलाप वो ही!

देखो, वो पर्वत, कब से खड़ा,
छुपाए पीड़ मन के, तन्हाईयों में, हँस रहा,
जरा, फिर बिछाओ परछाईयां,
तुम भी, बैठो यहां!

सूनी पड़ी ये वादियां, सुना दो, आलाप वो ही!

अक्सर, पलों को, बिखेर कर,
यूं ही हौले से, बहते पलों को झकझोरकर,
छोड़ कर, उच्श्रृंखल क्षण यहां,
चल देते हो, कहां!

सूनी पड़ी ये वादियां, सुना दो, आलाप वो ही!
या, फिर गुनगुना दो, प्रणय के गीत कोई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 22 March 2021

हक है तुम्हें

क्यूँ कोई झाँके, किसी के सूनेपन तक!
बेवजह दे, कोई क्यूँ दस्तक!

महज, मिटाने को, अपनी उत्सुकता,
जगाने को, मेरी सोई सी उत्कंठा,
देने को, महज, एक दस्तक,
तुम ही आए होगे, मेरे दर तक!

महज झांकने, सूनेपन तक....

वही पहचानी सी, आहट,
हल्की सी, पवन की सुग-बुगाहट,
सूखे पत्तों की, सर-सराहट,
काफी थे, कहने को!
तुम जो कहते,
वो, कह आए थे, चुपके से मुझको,
मन की बातें, इस मन तक!

देने को, महज एक दस्तक.....

अन्जान थे, हमेशा तुम,
सोया ही कब, उत्सुक ये मेरा मन,
हर पल, धारे इक उत्कंठा,
कहने भर, चुप जरा,
पर ओ बेखबर,
तीर पर, उठती ये पल-पल लहर,
सिमटती है, मेरे दर तक!

गूंजती है, दरो-दीवार तक......

हक है तुम्हें, तुम मिटाओ उत्सुकता,
न जगाओ मगर, यूँ मेरी उत्कंठा,
यूँ न दो, महज एक दस्तक,
ठहर जाओ, जरा मेरे दर तक!

या यूँ न झाँको, किसी के सूनेपन तक!
बेवजह दो न तुम यूँ दस्तक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 3 March 2018

व्याप्त सूनापन

क्यूं व्याप्त हुआ अनचाहा सा सूनापन?
क्या पर्याप्त नहीं, इक पागल सा दीवानापन?

छवि उस तारे की रमती है मेरे मन!
वो जा बैठा कहीं दूर गगन,
नभ विशाल है कहीं उसका भवन!
उस बिन सूना मेरा ये आँगन?
छटा विहीन सा है लगता, अब क्यूं ये गगन?
क्यूं वो तारे, आते नहीं अब इस आँगन?
व्याप्त हुआ क्यूं ये अंधियारापन?
क्या पर्याप्त नहीं, छोटा सा मेरा ये आँगन?

क्यूं व्याप्त हुआ अनचाहा सा सूनापन?
क्या पर्याप्त नहीं, इक पागल सा दीवानापन?

कवि मन रमता इक वो ही आरोहण!
क्या भूला वो मेरा ही गायन?
जर्जर सी ये वीणा मेरे ही आंगन!
असाध्य हुआ अब ये क्रंदन,
सुरविहीन मेरी जर्जर वीणा का ये गायन!
संगीत बिना है कैसा यह जीवन?
व्याप्त हुआ क्यूं ये बेसूरापन?
क्या पर्याप्त नहीं, मेरे रियाज की ये लगन?

क्यूं व्याप्त हुआ अनचाहा सा सूनापन?
क्या पर्याप्त नहीं, इक पागल सा दीवानापन?