Wednesday, 29 June 2016

ख्याल

तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!

तब रूह को छू जाती हैं बरबस यादें तेरी,
जल उठते है माहताब दिल के अंधियारे में कहीं,
महक उठती है ख्यालों से सूनी सी ये तन्हाई,
मद्धम सुरों में उभरता आलाप एक सुरमई।

तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!

मन पूछने लगता है पता खुद से खुद का ही,
भूल सा जाता है ये मन के तुम कहीं हो ही नहीं,
बस इक परछाईं सी हो तुम कोई अक्स नहीं,
गुमसुम सा विकल ये मन मानता ही नहीं।

तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!

राख बन कर ही सही उर रहीं हैं यादें तेरी,
गहरा धुआँ सा छा रहा हैं मन के गगन पर मेरी,
क्या मिलोगे मुझे उस क्षितिज के किनारे कहीं,
इस रूह की गहराईयों में तुम छुपे हो कहीं।

तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!

Sunday, 26 June 2016

प्यासी छाया

छाया क्षणिक सी,
वो क्या दे पाएगी गहरी छाँव?

कोरा भ्रम मन का,
कि पा जाऊँ क्षण भर,
उस अल्प छाया में विश्राम,
भ्रमित मन भँवरा सा,
आ पहुँचा है किस गाँव?

छाया खुद तपती सी,
वो क्या दे पाएगी गहरी छाँव?

छाया वो प्यासी सी,
तप्त किरणों में कुचली सी,
झमाझम बूंदों की उसको चाह,
बरसूँ मैं भींगा बादल सा,
ले आऊँ संग उसे अपने गाँव!

छाया लहराई सी,
अब हसती बनकर गहरी छाँव?

छाया का मौन

क्या टूटा भी है कभी इस व्यथित छाया का मौन?

जाने कब टूटेगा इस मूक छाया का मौन,
प्यासे किरणों के चुम्बन से रूँधी हैं इनकी साँसे,
कंपित हृदय हैं इनके सूखे पत्तों की आहट से,
खोई सी चाहों में घुट कर मूक हुई आहों में,
सुप्त आहों में छुपी वेदना कितनी ये पूछता है कौन?

क्या टूटा भी है कभी इस व्यथित छाया का मौन?

व्यथित प्राण इनके देख मुर्झाए फूलों को,
घुटती हैं साँसें इनकी देख सूूखे बंजर खेतों को,
सूनी आंगन में तब लेकर आती ये ठंढ़ी साँसो को,
रात के मूक क्षण भर भरकर धोती ये आहों को,
सुप्त चाहों में छुपी व्यथा कितनी ये पूछता है कौन?

क्या टूटा भी है कभी इस व्यथित छाया का मौन?

छलकते बादलों से टपकते आँसू मोती के,
मेघ भर लेता बाहों में छाया को अपनी पंखों से,
कह जाते इनके नैन कथा जाने किस बीते जीवन के,
सिहर उठते प्राण उस क्षण व्याकुल छाया के
सुप्त पनाहों में यह व्याकुल कितनी ये पूछता है कौन?

क्या टूटा भी है कभी इस व्यथित छाया का मौन?

Friday, 24 June 2016

छाया अल्प सी वो

बुझते दीप की अल्प सी छाया वो,
साथी! उस छाया से मिलना बस सपने की बात.....

प्रतीत होता जिस क्षण है बिल्कुल वो पास,
पंचम स्वर में गाता पुलकित ये मन,
नृत्य भंगिमा करते अस्थिर से दोनों ये नयन,
सुख से भर उठता विह्वल सा ये मन,
लेकिन है इक मृगतृष्णा वो रहता कब है पास....

उड़ते बादल की लघु सी प्रच्छाया वो,
साथी! उस छाया से मिलना बस सपने की बात.....

क्षणिक ही सही जब मिलते हैं उनसे जज्बात,
विपुल कल्पनाओं के तब खुलते द्वार,
पागल से हो जाते तब चितवन के एहसास,
स्मृति में कौंधती है किरणों की बौछार,
लेकिन वो तो है खुश्बु सी बहती सुरभित वात..,,

क्षणिक मेघ की अल्प सी छाया वो,
साथी! उस छाया से मिलना बस सपने की बात..

Thursday, 23 June 2016

चिरन्तन प्रेम तुम

चिरन्तर प्रेम अनुरागिनी, सजल पुतलियों मे तेरी छवि,
हो चिरन्तन प्रेम तुम.....

असीम घन सी वो, है चाह मुझे जिस छवि की,
सजल इन पुतलियों में, है अमिट छाप बस उसी की,
प्राण मेरे पल रहे, अनन्त चाह बस उस छवि की,
पर असीम सी वो, राह तकता रहा मैं जिस छवि की।

चित्र अमिट सी छपी है, नैनों में बस उसी की,
श्वास में उनको छिपाकर, राह तकुँ मैं बस उसी की,
असीम घन सी शून्य मन में ही वो विचर रही,
मन के मिलन मंदिर में सजी सदा से ही है वो छवि।

यादों में पहर सूने बिता, किस प्रांत में वो जा छुपी,
मैं मिटूँ प्रिय की याद में, मिटी ज्यों तप्त रक्त दामिनी,
दीप सा युग-युग जलूँ, जली ज्युँ रूप वो चाँदनी,
चिरन्तर प्रेम अनुरागिनी, सजल पुतलियों मे तेरी छवि।

हो, मेरी चिरन्तन प्रेम तुम........

Monday, 20 June 2016

उफ यह रात

उफ, यह डरी सहमी सी रात, तेज ढ़ले भी तो कैसे..,.....?

उफ, ये रात ढलती है कितनी धीरे-धीरे,
कितने ही मर्म अपने गर्त अंधेरे साए में समेटे,
दर्द की चिंगारी में खुद ही जल-जलके,
तड़पी है यह रात अपनों से ठोकर खा-खा के,

उफ, यह बेचारी रात, तेज ढ़ले भी तो कैसे..,.....?

पड़े हैं कितने ही छाले इनके पैरों में,
दिन की चकाचौंध उजियारों मे चल-चल के,
लूटे हैं चैन अपनों नें ही इन रातों के,
सपन सलोने भी अब आते हैं बहके-बहके,

उफ, यह तन्हा सी रात, तेज ढ़ले भी तो कैसे..,.....?

सुर्ख रातों की गहरी तम सी तन्हाई,
भाग्य की लकीरों सी इनकी हाथों मे गहराई,
सन्नाटों की चीरती आवाज सी लहराई,
आँखे रातों की भय, व्यथा, घबराहट से भर आई,

उफ, अंधेरी स्याह सी रात, तेज ढ़ले भी तो कैसे..,.....?

तुम्हें क्या

तुम्हें क्या.....?
लेकिन तुम्हें क्या, तुम्हें क्या, तुम्हें क्या...?

जाने किन एहसासों के तले दबा हूँ,
जन्मों के अंजान बंधन से हर पल जुडा हूँ,
संवेदनाओं के बूँदों से हरदम रीता हूँ,
बादल हूँ भीगा सा हर क्षण यूँ ही बरसा हूँ
सावन अंजाना सा, एकाकी संध्या वेला हूँ.........

लेकिन तुम्हें क्या, तुम्हें क्या, तुम्हें क्या...?

लहराते करुणा का अगम्य सागर हूँ,
अंजाने स्वर वेदना के जन्मों से रचता हूँ,
मन के प्रस्तर कोलाहल में खोता हूँ,
सागर खारा हूँ प्यासा हर क्षण यूँ ही रहता हूँ,
क्षितिज विशाल सा, एकाकी संध्या वेला हूँ........

लेकिन तुम्हें क्या, तुम्हें क्या, तुम्हें क्या...?

Saturday, 18 June 2016

धीरज

ओ मेरे उर के विह्वल दुलार!
कहो, क्या है तुझमें इतना धीरज.........
कि यूँ ही तुम चलते रहो उम्र भर साथ,
बिन आशा, बिन आकांक्षा, बिन अभिलाषा,
रहो हाथों में बस गहे यूँ ही हाथ?

ओ मेरे उर के विह्वल दुलार!
तुम सब झूठा हो जाने दो कहा-सुना,
कहना-सुनना क्या बस देखो इक सपना,
छल जाने दो उर को बस, रहो निराश उदास,
रहो हाथों में बस गहे यूँ ही हाथ?

ओ मेरे उर के विह्वल दुलार!
अब उठे भी कहाँ से प्यार की बात,
असमंजस हों कदम-कदम पर उर में जब,
इस मन के एकाकी तारे को दो बस यूँ उछाल,
रहो हाथों में बस गहे यूँ ही हाथ?

ओ मेरे उर के विह्वल दुलार!
कहो, क्या है तुममें इतना धीरज.........

प्रीतम लघु जीवन के

रिमझिम सावन से वो जैसे नव-बूँदें इस मधुवन के।

खिलकर हँसते वो जैसे नव-पात पीपल के,
कोमल तन के वो जैसे नव-कोपल सेमल के,
सहिष्णु मन के वो जैसे नव-आश दुल्हन के,
हैं मेरे प्रीतम वो जैसे नव-चराग इस लघु जीवन के।

निश्छल मूरत सी वो जैसे नव-आभा देवी के,
कुम्हलाई सिमटी वो जैसे नव-लज्जा लाजवन्ती के,
इठलाती चलती वो जैसे नव-नृत्य हों मयूरी के,
हैं मेरे प्रीतम वो जैसे नव-विहान इस लघु जीवन के।

भिगोए तन को वो जैसे नव-घटाएँ बादल के,
कानों में मिश्री घोले वो जैसे नव-मिठास मध के,
आँखों में रहते वो जैसे नव-प्रतिमा मंदिर के,
हैं मेरे प्रीतम वो जैसे नव-प्राण इस लघु जीवन के।

रिमझिम सावन से वो जैसे नव-बूँदें इस मधुवन के।

Tuesday, 14 June 2016

वो तस्वीर

बनती-बिगरती बादलों में उलझी सी इक तस्वीर,

हर क्षण रंग रूप बदलती वो तस्वीर,
पल पल दृग को वो छलती,
मनमोहक भावों से वो मन को हरती,
खुली जटाओं मे बादल की कहीं गुम हो जाती,

बरसती-बिखरती बादलों में बिखरी सी वो तस्वीर,

आकाश में फिर उभरती वो तस्वीर,
बादलों संग अठखेलियाँ करती,
चंचल सी स्वच्छंद विचरती वो तस्वीर,
भावप्रवण मन को कर खुद भावविहीन हो जाती,

जीवन के कितने ही किस्से कह जाती वो तस्वीर,

निःस्वार्थ जीवन जीती वो तस्वीर,
कुछ पल जग के दुख हर लेती,
आँखों में सपने जीने के भरती वो तस्वीर,
कर्मों की राह पर चलती फना हर बार वो होती,

कर्मपथ पर चलना सिखाती उलझी सी वो तस्वीर।