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Sunday, 8 September 2024

सब फीका लागे

तू लागे ऐसी, तुम बिन सब फीका लागे!

सिमटे सब रंग, लागे इक ही अंग,
ज्यूं, रिमझिम सा मौसम,
घोल रहा हो कोई भंग,
सावन सा आंगन,
मन मदमाया सा लागे!

तू लागे ऐसी, तुम बिन सब फीका लागे!

तुम बिन, जागे पतझड़ सा बेरंग,
ज्यूं, वृक्षों पर इक मातम,
पात-पात विरहा के रंग,
छाँव कहां, मन,
कंटक पांव तले लागे!

तू लागे ऐसी, तुम बिन सब फीका लागे!

ले आए तू, त्योहार भरा इक रंग,
रुत कोई बसंत-बयार सा,
रव जैसे नव-विहार सा,
पाए चैन कहां,
मन, झाल-मृदंग बाजे!

तू लागे ऐसी, तुम बिन सब फीका लागे!

तू कोई कूक सी, इक मूक सा मैं,
तू रूपसी और ठगा सा मैं,
ज्यूं, ले नभ की आभा,
निखरे प्रतिमा,
इक भोर सुहानी जागे!

तू लागे ऐसी, तुम बिन सब फीका लागे!

Monday, 14 January 2019

कैसे ना तारीफ करें

कह दे कोई! कैसे ना तारीफ करें....

बासंती रंग, हवाओं में बिखरे,
पीली सरसों, जब खेतों में निखरे,
कहीं पेड़ों पर, कोयल कूक भरे,
रिमझिम बूंदें, घटाओं से गिरे!

कह दे कोई! कैसे ना तारीफ करें....

मुस्काए कोई, हलके-हलके,
सर से उनके, जब आँचल ढ़लके,
बातें जैसे, कोई मदिरा छलके,
वो कदम रखें, बहके-बहके!

कह दे कोई! कैसे ना तारीफ करें....

तारीफ के हो, कोई काबिल,
लफ्जों में हो, किन्हीं के बिस्मिल,
आँखों मे हो , तारे झिलमिल,
बातों में हो, हरदम शामिल!

कह दे कोई! कैसे ना तारीफ करें....

Monday, 10 September 2018

बरसते घन

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

ये घन, रोज ही भर ले आती हैं बूँदें,
भटकती है हर गली, गुजरता हूँ जिधर मैं,
भीगोती है रोज ही, ढूंढकर मुझे...

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

थमती ही नहीं, बूँदों से लदी ये घन,
बरसकर टटोलती है, रोज ही ये मेरा मन,
पूछती है कुछ भी, रोककर मुझे...

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

जोड़ गई इक रिश्ता, मुझसे ये घन,
कभी ये न बरसे, तो बरसता है मेरा मन,
तरपाती है कभी, यूँ छेड़कर मुझे...

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

ये घन, निःसंकोच भिगोती है मुझे,
निःसंकोच मैं भी, कुछ कह देता हूँ इन्हें,
ये रोकती नही, कुछ कहने से मुझे...

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

यूँ निःसंकोच, मिलती है रोज मुझे,
तोहफे बूँदों के, रोज ही दे जाती है मुझे,
भीगना तुम भी, भिगोए जो ये तुझे...

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

निःस्वार्थ हैं कितने, स्नेह के ये घन,
सर्वस्व देकर, हर जाती है धरा का तम,
बरस जाती हैं, अरमानों के ये बूँदें....

थमती ही नही, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

Monday, 25 June 2018

प्रणय फुहार

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

सुकून सा कोई, मिला है हर मौसम,
न ही गर्मी है, न ही झुलसती धूप,
न ही हवाओं में, है कोई दहकती जलन...

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

कोई नर्म छाँव, लेकर आया हो जैसे,
घन से बरसी हों, बूंदों की ठंढ़क,
रेतीली राहों में, कम है पाँवों की तपन....

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

चल पड़ता हूं मैं गहरे से मझधार में,
भँवर कई, उठते हों जिस धार में,
है बस चाहों में, इक साहिल की लगन....

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

हाँ! ये तपिश, पल-पल होती है कम,
है ऐसा ही, ये प्रणय का मौसम,
इस रिमझिम में, यूं भीगोता हूं मैं बदन.....

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

Tuesday, 4 July 2017

रिमझिम सावन

आँगन है रिमझिम सावन, सपने आँखों में बहते से...

बूदों की इन बौछारों में, मेरे सपने है भीगे से,
भीगा ये मन का आँगन, हृदय के पथ हैं कुछ गीले से,
कोई भीग रहा है मुझ बिन, कहीं पे हौले-हौले से....

भीगी सी ये हरीतिमा, टपके  हैं  बूदें पत्तों से,
घुला सा ये कजरे का रंग, धुले हैं काजल कुछ नैनों से,
बेरंग सी ये कलाई, मुझ बिन रंगे ना कोई मेहदी से....

भीगे से हैं ये ख्वाब, या बहते हैं सपने नैनों से,
हैं ख्वाब कई रंगों के, छलक रहे रिमझिम बादल से,
वो है जरा बेचैन, ना देखे मुझ बिन ख्वाब नैनों से....

भीगी सी है ये रुत, लिपटा है ये आँचल तन से,
कैसी है ये पुरवाई, डरता है मन भीगे से इस घन से,
चुप सा भीग रहा वो, मुझ बिन ना खेले सावन से......

बूँद-बूँद बिखरा ये सावन, कहता है कुछ मुझसे,
सपने जो सारे सूखे से है, भीगो ले तू इनको बूँदो से,
सावन के भीगे से किस्से, जा तू कह दे सजनी से....

आँगन है रिमझिम सावन, सपने आँखों में बहते से...

Monday, 25 July 2016

कोरे जज्बात

माने ना ये मेरी बात, ये कैसे हैं......कोरे जज्बात?

कोरा.....ये मेरा मन....., पर ये जज्बात हैं कैसे,
अनछुए..... से मेरे धड़कन..,,, पर ये एहसास हैं कैसे,
अनजाना.... सा यौवन...., पर ये तिलिस्मात हैं कैसे,
मन खींचता जाता किस ओर, ये अंजान है कैसे?

यौवन की.....,, इस अंजानी दहलीज पर,
उठते है जज्बातों के.........ये ज्वार.... किधर से,
कौन जगाता है .....एहसासों को चुपके से,
बेवश कर जाता मन को कौन, ये अंजान है कैसे?

खुली आँख... सपनों की ...होती है फिर बातें,
बंद आँखों में ....न जाने उभरती वो तस्वीर कहाँ से,
लबों पर इक प्यास सी...जगती है फिर धीरे से,
गहराती फिर मन में वो प्यास, मन अंजान हो कैसे?

फिर उस अंजानी बुत.....की ही होती बस बातें,
कहीं तारों के उपर...बस जाती मन की छोटी दुनियाँ,
साँसों में घुलती....खुश्बू फिर इक अंजानी सी,
गा उठते हैं जज्बात नए तराने, गीत अंजान ये कैसे?

संभाले ...अब कौन इसे, रोके ...कौन इसे कैसे,
बहके से हैं....ये जज्बात, एहसासों...की है ये बारात,
कोरा सा ये मन...रिमझिम सी उसपर ये बरसात,
सुलगी है आग मचले हैं ये जज्बात, माने ये फिर कैसे?

माने ना ये मेरी बात, ये कैसे हैं.......कोरे जज्बात?

Monday, 18 July 2016

ओ मेरे साजन

फुहारें रिमझिम की लेकर आई फिर साजन की यादें..........

घटाओं ने आँचल को बिखेरे हैं यूँ झूम-झूमकर,
बिखरी हैं बूंदें सावन की तन पर टूट-टूटकर,
वो कहते हैं इसको, है यह सावन की पहली फुहार,
मन कहता है, साजन ने फिर आज बरसाया हैं मुझ पर प्यार।

साजन मेरा साँवला सा, है सावन का वो संगी,
साथ-साथ रहते हैं दोनो, उन घटाओं के उपर ही,
वो कहते है, बावला है प्रियतम तेरा बरसाता है फुहार,
मन कहता है, दीवाना है साजन मेरा करता वो मुझसे गुहार।

ओ काले बादल जाकर मेरे साजन से तुम ये कहना,
छुप-छुपकर बूँदों से मेरे तन को ना सहलाए,
कोरा आँचल भींगा-भीगा सा पहना है मैंने भी तन पर,
लहरा दे इनको भी प्यार से, छलका दे ऱिमझिम सी फुहार।

ओ मेरे नटखट साँवले से मधुप्रिय साजन,
तुम झिटको फिर से घटाओं का ये भींगा सा आँचल,
पड़ने तो फुहार ऱिमझिम की तन पर टूट-टूटकर,
भीगे ये काया, भीगे ये मन, भीग जाए मेरे आँगन की बहार।

Saturday, 18 June 2016

प्रीतम लघु जीवन के

रिमझिम सावन से वो जैसे नव-बूँदें इस मधुवन के।

खिलकर हँसते वो जैसे नव-पात पीपल के,
कोमल तन के वो जैसे नव-कोपल सेमल के,
सहिष्णु मन के वो जैसे नव-आश दुल्हन के,
हैं मेरे प्रीतम वो जैसे नव-चराग इस लघु जीवन के।

निश्छल मूरत सी वो जैसे नव-आभा देवी के,
कुम्हलाई सिमटी वो जैसे नव-लज्जा लाजवन्ती के,
इठलाती चलती वो जैसे नव-नृत्य हों मयूरी के,
हैं मेरे प्रीतम वो जैसे नव-विहान इस लघु जीवन के।

भिगोए तन को वो जैसे नव-घटाएँ बादल के,
कानों में मिश्री घोले वो जैसे नव-मिठास मध के,
आँखों में रहते वो जैसे नव-प्रतिमा मंदिर के,
हैं मेरे प्रीतम वो जैसे नव-प्राण इस लघु जीवन के।

रिमझिम सावन से वो जैसे नव-बूँदें इस मधुवन के।