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Monday, 18 February 2019

यूँ न था बिखरना

यूँ न टूटकर, असमय था बिखरना मुझे...

छोड़ कर यादें, वो तो तन्हा चला,
तोड़ कर अपने वादे, यूँ कहाँ वो चला,
तन्हाइयों का, ये है सिलसिला,
यूँ इस सफर में, तन्हा न था चलना मुझे!

यूँ न टूटकर, असमय था बिखरना मुझे...

कली थी, अभी ही तो खिली थी!
सजन के बाग की, मिश्री की डली थी!
था अपना वही, एक सपना वही,
यूँ न बाहों से उनकी, था निकलना मुझे!

यूँ न टूटकर, असमय था बिखरना मुझे...

गुजर चुके अब, सपनों के दिन,
अब गुजरेंगे कैसे, वक्त अपनों के बिन,
न था वास्ता, तंज लम्हों से मेरा,
यूँ तंग राह में अकेले, न था गुजरना मुझे!

यूँ न टूटकर, असमय था बिखरना मुझे...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 26 June 2016

छाया का मौन

क्या टूटा भी है कभी इस व्यथित छाया का मौन?

जाने कब टूटेगा इस मूक छाया का मौन,
प्यासे किरणों के चुम्बन से रूँधी हैं इनकी साँसे,
कंपित हृदय हैं इनके सूखे पत्तों की आहट से,
खोई सी चाहों में घुट कर मूक हुई आहों में,
सुप्त आहों में छुपी वेदना कितनी ये पूछता है कौन?

क्या टूटा भी है कभी इस व्यथित छाया का मौन?

व्यथित प्राण इनके देख मुर्झाए फूलों को,
घुटती हैं साँसें इनकी देख सूूखे बंजर खेतों को,
सूनी आंगन में तब लेकर आती ये ठंढ़ी साँसो को,
रात के मूक क्षण भर भरकर धोती ये आहों को,
सुप्त चाहों में छुपी व्यथा कितनी ये पूछता है कौन?

क्या टूटा भी है कभी इस व्यथित छाया का मौन?

छलकते बादलों से टपकते आँसू मोती के,
मेघ भर लेता बाहों में छाया को अपनी पंखों से,
कह जाते इनके नैन कथा जाने किस बीते जीवन के,
सिहर उठते प्राण उस क्षण व्याकुल छाया के
सुप्त पनाहों में यह व्याकुल कितनी ये पूछता है कौन?

क्या टूटा भी है कभी इस व्यथित छाया का मौन?

Wednesday, 8 June 2016

सूखते रिश्ते

बदलते मौसम की बयार में सूख रहे हैं ये रिश्ते भी...,

कुम्हलाए हैं अब रिश्तों के नाजुक फूल,
जज्बातों की गर्म हवाओं में जलकर,
बदलते मौसम की अनचाही आँधी मे झूलकर,
एहसासों के जमीं पर बिखरे हैं अब धूल ही धूल।

फफूँद उग आए हैं रिश्तों की क्यारी में,
सुखे है यहाँ सभी भावनाओं के फूल,
बिखर चुके पंख कोमल सी कल्पनाओं के,
स्वतः पूर्णविराम लगे हैं जीवन की आशाओं पर।

कशिश बस एक बाकी है उन रिश्तों की,
कभी खुश्बु सी आती है उन फूलों की,
खिलकर बिखरे थे जो मन की इस क्यारी में,
अब कड़वाहट बाँकी है उन रिश्तों की फुलवारी में।

दरारें हैं अब कैसी रिश्तों की इस गाँठ में,
क्युँ अहम इंसानों के भारी हैं रिश्तों पर,
तृष्णा, लालसा, अहम, अभिलाषा हावी संबंधों पर,
कुठाराघात करते रहे वो दिल की लचीली दीवारों पर।

बदलते एहसासों के साथ में टूट रहे हैं ये रिश्ते भी...,

Thursday, 28 April 2016

सुर के गिरह

सुर साधूँ तो मै कैसे,
बार-बार न जाने कितनी बार,
टूटा है मेरा सुर हर बार।

गिरह पड़े हैं सुर में मेरे,
तार-तार सुर के न जाने क्युँ बेजार,
स्वर मेरे लड़खड़ाए हैं हर बार।

संगम हो कैसे सुर का?
नाल-नाल मृदंग जब हो ना तैयार,
गीत मेरे भटके है हर बार।

सुर सधते गीत बजते,
जब-जब पायल की तेरी हो झंकार,
खुल जाते सुर के गिरह हर बार।