Monday 8 July 2019

बहल जा दिल

चल बहल जा, यूं ही बातों से, ऐ मेरे दिल....

नाराज है क्यूं, दूर बैठा  क्यूं ऐसे आज है तू?
माना, बस दिखावे की, यहाँ है दिल्लगी,
मिठास बस बातों में है, पर हर बात में है ठगी,
कुछ ऐसी ही है, वश में कहाँ है जिन्दगी?

चल बहल जा, यूं ही बातों से, ऐ मेरे दिल....

है ये कैसी बेरुखी, तू इतना भी, क्यूं है दुखी?
साथ तेरे, हाथ थामे, चल रही है जिन्दगी,
तू जरा ये जाम ले, खुद को जरा सा थाम ले,
हँस ले जरा, चाहे जितना सताए जिन्दगी!

चल बहल जा, यूं ही बातों से, ऐ मेरे दिल....

है तुझे क्या वास्ता, गर, कोई बदल ले रास्ता?
मान ले, हर पल, जिन्दगी है इक हादसा,
है ये मयखाना, कहाँ टूटे पैमानों से है वास्ता,
अजीब रंग कितने, दिखाएगी ये जिन्दगी!

चल बहल जा, यूं ही बातों से, ऐ मेरे दिल....

माना, हिस्से में तेरे, अजीबोगरीब है किस्से!
फूल चुनने हैं तुझे, राहों के इस शूल से,
सीखनी है बन्दगी, बिखरे हुए इस धूल से,
हर भूल से, कुछ तो सिखाएगी जिन्दगी!

चल बहल जा, यूं ही बातों से, ऐ मेरे दिल....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

इस हुजूम में

कौन हैं हम? न जाने इस भीड़ में क्यूं मौन हैं हम!
इक प्रश्न है हर नजर में, हर प्रश्न में गौण हैं हम,
अनुत्तरित हैं, असंख्य ऐसे प्रश्न इस हुजूम में!

चेहरा एक तेरा, एक मेरा भी है चेहरों के हुजूम में!
ढ़ोए जा रहा है, यही भीड़, तुझको और मुझको,
अन्तहीन सा दौड़ है, गुम है सब इस हुजूम में!

उदास से हैं चेहरे, उन पर बदहवासियों के हैं पहरे!
शायद, खुद का पता, खुद ही तलाशती है आँखें,
वजूद, कुछ तेरा और मेरा भी है इस हुजूम में!

अपनत्व है इक दिखावा, साथ तो है इक छलावा!
जी ले कोई अपनी बला से, या कोई मरता मरे,
इन्सानियत गिर चुका है, इतना इस हुजूम में!

कौन दावा करे? झूठा दंभ कोई क्यूं खुद पर भरे!
कभी शह, कभी मात है, वक्त की ये विसात है,
खुद ही जिन्दगी, छल चुकी है इस हुजूम में!

चेहरा एक तेरा, एक मेरा भी है चेहरों के हुजूम में!
ढ़ोए जा रहा है, यही भीड़, तुझको और मुझको,
अन्तहीन सा दौड़ है, गुम है सब इस हुजूम में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday 2 July 2019

निःस्तब्धता

टूटी है वो निस्तब्धता,
निर्लिप्त जहाँ, सदियों ये मन था!

खामोश शिलाओं की, टूट चुकी है निन्द्रा,
डोल उठे हैं वो, कुछ बोल चुके हैं वो,
जिस पर्वत पर थे, उसको तोल चुके हैं वो,
निःस्तब्ध पड़े थे, वहाँ वो वर्षों खड़े थे,
शिखर पर उनकी, मोतियों से जड़े थे,
उनमें ही निर्लिप्त, स्वयं में संतृप्त,
प्यास जगी थी, या साँस थमी थी कोई,
विलग हो पर्वत से, हुए वो स्खलित,
टूटी थी उनकी, वर्षो की तन्द्रा,
भग्न हुए थे तन, थक कर चूर-चूर था मन,
अब बस, हर ओर अवसाद भरा था,
मन में बाक़ी, अब भी, इक विषाद रहा था,
पर्वत ही थे हम, सजते थे जब तक,
तल्लीन थे, तपस्वी थे तब तक,
टूटा ही क्यूँ तप, बस इक शोर हुआ था जब?
अन्तर्मन, इक विरोध जगा था जब,
सह जाना था पीड़, न होना था इतना अधीर!
सह पाऊँ मैं कैसे, टूटे पर्वत का पीड़!

टूटी है वो निस्तब्धता,
निर्लिप्त जहाँ, सदियों ये मन था!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday 30 June 2019

निर्बाध पल

जीवन दरिया है, पल ही जरिया है,
चल, हर-पल बहते,
कल-कल करते पल में चल!

दुर्गम ये तेरे पथ, निर्बाध है पल,
रोड़े-काँटे, दुख जो किस्मत नें बांटे,
आएंगे-जाएंगे, इस पथ में,
राहें होगी टेढ़ी, आहें भी संग होगी तेरी,
ले बह जाएगा ये पल!

जीवन दरिया है, पल ही जरिया है,
चल, हर-पल बहते,
कल-कल करते पल में चल!

यूं आकाश न तक, तू ना थक,
कोई आवेग ले, कदमों में वेग भर,
तू नाप धरा, रुक न जरा,
कर प्रशस्त दिशा, यहाँ तू छोड़ निशां,
तुझे, याद रखेगा कल!

जीवन दरिया है, पल ही जरिया है,
चल, हर-पल बहते,
कल-कल करते पल में चल!

कोमल से पल, लाएंगे ये कल,
ये छाल पाँवों के, गले के होंगे माल,
घट जाएंगे, पीड़ा के ज्वर,
करेंगे शंखनाद, निष्प्राण हुए हर नाद,
आ, लहरों सा मचल!

जीवन दरिया है, पल ही जरिया है,
चल, हर-पल बहते,
कल-कल करते पल में चल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday 22 June 2019

प्रभा-लेखन

है यह, नव-प्रभात का स्पंदन!
या है यह, प्रकृति का, इक सर्वश्रेष्ठ लेखन!
या, खुद रचकर, इक नव-संस्करण,
प्रकृति, करती है विमोचन!

यूँ, रचती है प्रकृति, हर क्षण इक रचना,
सर्वश्रेष्ठ, सर्वदा देती है वो अपना,
थोड़ा सा आवर्तन, अप्रत्याशित सा परिवर्तन,
कर कोई, श्रृंगार अनुपम,
ले आती है नित्य, नव-प्रभात का संस्करण!

कलियों की आहट में, होती है इक लय,
डाली पर प्रस्फुट, होते हैं किसलय,
बूँदों पर ढ़लती किरणें, ले नए रंगों के गहने,
छम-छम करती, पायल,
उतरती है प्रभात, कितने आभूषण पहने!

किलकारी करती, भोर लेती है जन्म,
नर्तक भौंड़े, कर उठते हैं गुंजन,
कुहुकती कोयल, छुप-छुप करती है चारण,
संसृति के, हर स्पंदन से,
फूट पड़ती है, इसी प्रकृति का उच्चारण!

किरणों के घूँघट, ओढ़ आती है पर्वत,
लिख जाती है, पीत रंग में चाहत,
अलौकिक सी वो आभा, दे जाती है राहत,
मंत्रमुग्ध, हो उठता है मन,
बढ़ाता है प्रलोभन, भोर का संस्करण!

है यह, नव-प्रभात का स्पंदन!
या है यह, प्रकृति का, इक सर्वश्रेष्ठ लेखन!
या, खुद रचकर, इक नव-संस्करण,
प्रकृति, करती है विमोचन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday 18 June 2019

मन के रार

मन रे, तू इतना क्यूँ रार करे?

छोड़ न, तू ये जिद!
क्यूँ है तू, अपनी मर्जी पे काबिज?
गर होता वो अपना, वो खुद ही आता, 
तुझको अपनाता,
जिद, वो खुद करता!
यूँ तुझको, ना वो तड़पाता!
इक-तरफा चाहत में,
क्यूँ खुुुद को बेजार करे?
तड़पाएंगे ये तुुुुझको, फिर क्यूँ तू रार करे?

मोड़ ले, अपनी राहें!
भर ना तू, उनकी चाहत में आहें!
क्यूँ उनको ही चाहे, खुद को भटकाए,
अंजान दिशाएं,
क्यूँ खुद को ले जाए?
यूँ दिल को, तू क्यूँ उलझाए!
है ये भूल-भुलैया,
रुख क्यूँ उस ओर करे?
भटकाएंगे ये तुझको, फिर क्यूँ तू रार करे?

तोड़ दे, तू ये भरम!
इक दिन, दे जाएगा बस वो गम!
जिद, बन जाएगा तेरे गम का कारण,
है वो इक वहम,
और अनमोल है जीवन,
भूल न तू, जीवन के ये मरम!
बहती ये पवन,
कोई हाथों में कैैैसे भरे?
परछाईं के पीछे, क्यूँ खुद को शर्मसार करे?

मन रे, तू इतना क्यूँ रार करे?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday 17 June 2019

बरसे न बदरा

बरसते नहीं, यहाँ अब वो बादल,
चल कहीं और चल....

बरसों हुए, अब-तक न भीगे!
रंग बारिशों के, है कैसे ये हमने न देखे?
कहते है, वो मेघ होते हैं पागल,
झमा-झम बरस जाएँ, न जाने ये किस पल!
पर भरोसे के, कब होते हैं बादल!
चल कहीं और चल....

बरसते नहीं, यहाँ अब वो बादल,
चल कहीं और चल....

आसमां पर, मेघों का छाना!
कल्पना है कोरी, या है ये कोई फ़साना!
सुना था, इठलाते हैं वो बादल,
यूँ कभी झूमकर, यूँ ही कहीं जाते हैं चल!
छोड़ कर पीछे, सूना सा आँचल!
चल कहीं और चल....

बरसते नहीं, यहाँ अब वो बादल,
चल कहीं और चल....

हैं अधूरे से, अपने सारे अरमाँ,
चल, ले आएं हम इक नया सा आसमां,
लहराना तुम, भींगा सा आँचल,
जरा भर लाना, नैनों में तुम, वो ही काजल!
इससे पहले, कि बिखर जाएँ हम!
चल कहीं और चल....

बरसते नहीं, यहाँ अब वो बादल,
चल कहीं और चल....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday 15 June 2019

कर्म-साक्षी

मिल आना, तुम भी, उन तप्त शिलाओं से!

जब मैं मिला था, कुछ सख्त थी शिला,
धूप में जलकर, अंगारों सी कुछ तप्त थी शिला,
न था गम, उसे कोई, न था कोई गिला,
स्वागत में मेरे, बाहें पसारे, वो मुझसे मिला!

मिल आना, तुम भी, उन तप्त शिलाओं से!

पली थी इक नागफनी, उसके अंक में,
काँटे दंश के, चुभोती वो रही, खिल कर संग में,
निरंतर सहती रही, यातना उस दंश में,
मगर, मुझे हँसती वो मिली, उसी के संग में!

मिल आना, तुम भी, उन तप्त शिलाओं से!

बना था मैं साक्षी, शिला के सूकर्म का,
कर्म-साक्षी खुद थी शिला, प्रकृति के धर्म का,
उपांतसाक्षी मैं बना, धरम के मर्म का,
विषम पल में, पहनी मिली गहना शर्म का!

मिल आना, तुम भी, उन तप्त शिलाओं से!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

एकांत पल

इक रव है, आदि से एकांत पलों के अंत तक!

यूँ लगा था, पहले पहल,
बड़े नीरव से हैं, वो एकांत पल,
दीर्घ श्वांस भरते होंगे, वो एकांत पल,
एकाकी रहती होंगी, वो हरपल,
सिमटे से, होंगे वो पल!
छाई होगी नीरवता, अनमना सा होगा हर पल!

यही सोच, सदियों तक,
पहुँचा था मैं, एकांत पलों तक,
ले अंकपाश, बेतहासा चूमती भाल,
कंठ लिए रव, चहक उठे पल,
जागृत थे, वो हर पल!
थी उनमें स्थिरता, धैर्य भरा था उनमें हर पल!

कलरव हैं, उनके अन्तः,
गुंजित हो उठते हैं, पल स्वतः,
मृदुल से वो पल, मुखर हैं अन्ततः,
रव उनमें, आदि से अन्त तक,
शान्त से, एकांत पल!
रव की मधुरता, आकंठ लिए थे एकांत पल!

इक रव है, आदि से एकांत पलों के अंत तक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday 13 June 2019

दूरियाँ

असह्य सी हैं, हर पल बढ़ती दूरियाँ!

दर्द ही दे गया, उनसे ये बिछड़न,
पीड़ कैसे सह सकेगा, नाजुक सा ये मन,
तोड़ कैसे पाएगा, उनसे ये बंधन,
जोड़ती है क्यूँ, रिश्ते दूरियाँ!

दुरूह सा है कितना, ये बिछड़न,
उभरते फासलों में, बढ़ता हुआ विचलन,
पल-पल, तेज होती एक धड़कन,
असह्य हैं, ये बढ़ती दूरियाँ!

तड़प, दर्द और उभरता विषाद,
अन्तर्द्वन्द्व, विछोह, जन्म लेता अवसाद,
मन से मन का, हर-पल इक विवाद,
रह-रह के, कुरेदती दूरियाँ!

रिश्तों की, ये नाजुक बारीकियाँ,
दूरियों में, पल-पल बढ़ती नजदीकियाँ,
हर पल ऊँघता, पनपता गठबंधन,
उत्पीड़न, देती हैं दूरियाँ!

क्यूँ न बन जाए, फिर अफसाने,
हुए जो बेगाने, जोड़ ले वो रिश्ते पुराने,
चल रे मन, चल नाप ले फासले,
चलो कर ले तय, दूरियाँ!

असह्य सी हैं, हर पल बढ़ती दूरियाँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा