Saturday, 30 July 2016

मन की मन में रही

अब कौन सुने मन की? मन की कही बस मन में रही!

बात कोई अनकही क्यों कभी उस ने गढ़ी?
कह न सके लफ्जों में जिसे मन सदा कहता वही,
झाँकता कोई मन में अगर देखता वो अनकही,
टटोलता मन को अगर जानता मन की कही,
कौन सुने मन की मगर, बात रही बस मन में दबी!

अब कौन सुने मन की? मन की कही बस मन में रही!

अनकही बातों से ही, रचता है मन इक दुनियाँ नई,
खिलते हैं यहाँ कितने ही कँवल, जिसे देखता कोई नहीं,
बहती हैं धार करुणा की यहाँ, जिसे जानता कोई नहीं,
दर्द में कभी रोता भी मन, आहें यहाँ कितनी छुपी,
मन की गरज किसको मगर, मन की सदा मन में रही!

अब कौन सुने मन की? मन की कही बस मन में रही!

दुनियाँ की इस भीड़ में, मन तो है इक अजनबी,
है फुर्सत किसको यहाँ, झाँकता कोई मन में नहीं,
झंकार सिक्कों की मगर, जानता है हर कोई,
हालात के मारे हैं सब, जज्बात मन के है यहाँ दुखी,
क्या मारकर मन को यहाँ, जी रहें दुनियाँ में सभी....?

अब कौन सुने मन की? मन की कही बस मन में रही!

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