विध्वंस रचा हमने, यह नहीं कोई निर्माण!
आधार-विहीन प्रगति पर, ऐ मानव!
मत कर, तू अभिमान!
प्रलय, ले आई है, भविष्य की झांकी,
त्रिनेत्र, अभी खुला है हल्का सा,
महाप्रलय, बड़ी है बाकी!
प्रगति का, कैसा यह सोपान?
चित्कार, कर रही प्रकृति,
बैठे, हम अंजान!
यह पीड़ जरा, पहले तू पहचान,
अवशेषों के, इस पथ पर, ऐ मानव!
मत कर, तू अभिमान!
विध्वंस रचा हमने, यह नहीं कोई निर्माण!
तेरी ही संतति, कल हँसे न तुझ पर!
छींटे कसे न, पीढियाँ तुझ पर,
कर नवप्रयान की तैयारी,
दे संतति को, इक नवविहान!
फिर पुकारती है, प्रकृति,
बन मत, अंजान!
ये हरीतिमा, यूँ ना हो लहुलुहान,
रक्तिम सी इस प्रगति पर, ऐ मानव!
मत कर, तू अभिमान!
विध्वंस रचा हमने, यह नहीं कोई निर्माण!
आधार-विहीन प्रगति पर, ऐ मानव!
मत कर, तू अभिमान!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
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(दिनांक 07.02.2021 को उत्तराखंड में आई भीषण प्राकृतिक त्रासदी से प्रभावित)
ReplyDeleteतेरी ही संतति, कल हँसे न तुझ पर!
छींटे कसे न, पीढियाँ तुझ पर,
कर नवप्रयान की तैयारी,
दे संतति को, इक नवविहान!
फिर पुकारती है, प्रकृति,
बन मत, अंजान!
ये हरीतिमा, यूँ ना हो लहुलुहान,
रक्तिम सी इस प्रगति पर, ऐ मानव!
मत कर, तू अभिमान..…अर्थपूर्ण रचना बधाई हो आपको आदरणीय
शुभ प्रभात व बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया।
Deleteतेरी ही संतति, कल हँसे न तुझ पर!
ReplyDeleteछींटे कसे न, पीढियाँ तुझ पर,
कर नवप्रयान की तैयारी,
दे संतति को, इक नवविहान!
फिर पुकारती है, प्रकृति,
बन मत, अंजान!
..सारगर्भित, सन्देशपूर्ण एवं समसामयिक रचना के लिए हार्दिक शुभकामनायें..
शुभ प्रभात व बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया।
Deleteआह ! हृदय चित्कार रहा है मानव जनित विध्वंस लीला देख कर । अत्यंत मर्मस्पर्शी ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय अमृता तन्मय जी।
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (10-02-2021) को "बढ़ो प्रणय की राह" (चर्चा अंक- 3973) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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बहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 09 फरवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteविध्वंस रचा हमने, यह नहीं कोई निर्माण!
ReplyDeleteबहुत मार्मिक चित्रण
सादर प्रणाम
हार्दिक आभार आदरणीया.......।
Deleteवाह।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय शिवम जी।
Deleteसामयिक प्रसंग पर सठिक रचना।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय सान्याल जी।
Deleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय मनोज जी।
Deleteक्या पता हमारे आकाओ को कब अक्ल आएगी?
ReplyDeleteजी, आदरणीया।
Deleteउत्तराखंड की विनाशक घटनाओं से भी नहीं सीख पा रहा मानव....हर बार बेगुनाह मानव मरते हैं। विकास का नहीं विनाश का पथ है यह।
ReplyDeleteसामयिक और सार्थक रचना।
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया मीना जी।
Deleteप्रकृति के असंतुलन पर जीवंत स्वर पुरुषोत्तम जी | सच में आने वाली संततियां कितना कोसेंगी हमें | क्या पता भविष्य किसी आने वाली संतति के लिए अभिशाप ही बन जाए | सादर
ReplyDeleteआदरणीया रेणु जी,
Deleteआपकी प्रतिक्रियाओं से अभिभूत हूँ और शब्दविहीन भी। आभार व्यक्त करूँ तो कैसे? सतत् आपने सराहा, मान बढ़ाया, यह भार उतारूँ कैसे?